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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ६८, मीमांसक दर्शन
बहूदको का वेष कुटीचर के समान ही है । वे ब्राह्मणो के घर से भिक्षा पाके नीरस भोजन करनेवाले है। विष्णु के जाप में लीन रहते है और ज्यादा पानीवाली नदी में स्नान करने के कारण वे बहूदक कहे जाते है ।
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हंस साधु ब्रह्मसूत्र और शिखा से रहित है । वे काषाय (गेरुये) वस्त्रधारी है तथा दंड को धारण करते है। गांव में एकरात्री और नगर में तीन रात्री रहते है। गृहस्थो के घरो में धुआं बंध हो और अग्नि शांत हो, तब ब्राह्मणो के घरो में से भिक्षावृत्ति से भोजन करते है । वे कठीन तपस्याओ से शरीर को कृश करके देशविदेश में घूमते है।
हंस साधुओ को जब तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है तब ही उसे परमहंस कहा जाता है। परमहंस साधु ब्राह्मण शुद्रादि चारो वर्णों के घरो में से भिक्षा प्राप्त करके भोजन करते है । इच्छानुसार कभी दण्ड लेते भी है और कभी लेते भी नहीं है। जब वे शक्तिहीन होते है, तब इशान दिशा में जाकर अनशन - उपवास कर लेते है । उनके अध्ययन का एक ही विषय है वेदांत । वे हंमेशां ब्रह्म के स्वरुप का विचार करते रहते है । उन चार में क्रमश: कुटीचर से बहूदक, बहूदक से हंस, हंस से परमहंस उत्कृष्ट होते है। ये चारों ब्राह्मण केवल ब्रह्म अद्वैत की सिद्धि की साधना में लीन रहते है । वे ब्रह्म के सिवा के शब्द या पदार्थ के निराकरण के लिए अनेक युक्तिओ को पेश करते करते अंत में अनिर्वचनीय ब्रह्म की सिद्धि में वाद की समाप्ति करते है। उसके अनिर्वचनीय ब्रह्मतत्त्व की सिद्धि तथा परपदार्थ खंडन की युक्तिओ का समूह खंडनखंडन्खाद्य नाम का तर्कग्रंथ देखने को मिलता है । ( कहने का मतलब यह है कि यह दृश्यजगत (= द्वैत की प्रतीति) माया का विवर्त है और वह दृश्यजगत भी ब्रह्म का अंशमात्र ही है । इस अद्वैतवाद की सिद्धि वेदांती जिस तरह से करते है, वह प्रतिवादिविद्वानो के द्वारा अन्यग्रंथ से जाने सकते है ।) वह यहीं नहीं कहा जायेगा। (हमने वह टिप्पणी में कुछ अंश में देखा है | ) ||६७॥
इह तु सामान्येन शास्त्रकार: पूर्वमीमांसावादिमतमेव बिभणिषुरेवमाह
यहाँ ग्रंथकारश्री सामान्यत: पूर्वमीमांसक मत का व्याख्यान करने की इच्छा से (उसका निरुपण करते कहते है कि......
(मू. श्लो.) जैमिनीयाः पुनः प्राहुः सर्वज्ञादिविशेषणः ।
देवो न विद्यते कोऽपि यस्य मानं वचो भवेत् । । ६८ ।।
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श्लोकार्थ : जैमिनीय मतानुयायी कहते है कि, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग, जगत्कर्ता आदि विशेषणवाले कोई भी देवता ही नहीं है, कि उनका वचन प्रमाणरुप हो | ॥६८॥
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व्याख्या- जैमिनीयास्तु ब्रुवते । सर्वज्ञादीनि विशेषाणि यस्य स सर्वज्ञादिविशेषणः सर्वज्ञः सर्वदर्शी वीतरागः सृष्ट्यादिकर्ता चेत्यादिविशेषणवान् कोऽपि प्रागुक्तदर्शनसंमतदेवानामेकतरोऽपि देवो-दैवतं न विद्यते, यस्य देवस्य वचो - वचनं मानं - प्रमाणं भवेत् । प्रथमं तावदेव एव वक्ता न वर्तते, कुतस्तत्प्रणीतानि वचनानि संभवेयुरिति भावः । तथाहि -पुरुषो न सर्वज्ञः
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