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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६२, ६३, वैशेषिक दर्शन 1 घ्राणेन्द्रिय से ग्राह्यगुण गंध है। वह केवल पृथ्वी में रहता है। स्पर्शादि का इतर - व्यवच्छेदक लक्षण अनुसार से है-गुण होने के साथ जो स्पर्शेन्द्रिय से ग्राह्य हो, उसे स्पर्शादि कहा जाता है । अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय सेग्रा जो गुण हो वह स्पर्श, रसनेन्द्रिय से ग्राह्य जो गुण है, वह रस, घ्राणेन्द्रिय से ग्राह्य जो गुण है, वह गंध। चक्षु से ग्राह्य जो गुण है, वह रुप । श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य जो गुण है, वह शब्द । (यद्यपि रुपत्व आदि भी उस उस इन्द्रियो से ग्राह्य होने पर भी वह गुण नहीं है। इसलिए उसमें लक्षण अतिव्याप्त बनता नहीं है । जो इन्द्रिय से जो पदार्थ ग्रहण होता है उसी इन्द्रिय से उसकी जाति और उसका अभाव ग्रहण होता है, ऐसा नियम है। इसलिए रसनेन्द्रिय से रस की तरह रसत्व ग्रहण होता है फिर भी रसत्व गुण न होने से उसमें लक्षण जाता नहीं है। अर्थात् "गुण" विशेषण रखने से रसत्वादि में लक्षण अतिव्याप्त बनता नहीं है । रसत्व जाति है ।) (४) शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य है । आकाश में रहता है और क्षणिक है । श्रोत्रेन्द्रिय आकाशस्वरुप है। शंका : आकाश तो निरवयव है । इसलिए यह हमारा श्रोत्र है और यह दूसरे का श्रोत्र है। ऐसा विभाग किस तरह से पड़ सकते है ? ३२४/९४७ समाधान : (इसमें कोई शंका करने जैसी नहीं है ।) जिसके पुण्य-पाप से संस्कृत कर्णशष्कुलि में आकाश का जो भाग रुकता है, आता है, वह उसका श्रोत्र कहा जाता है, इस अनुसार से विभाग होते है। इसलिए ही नासिका आदि के रहे हुए आकाश से शब्द सुनाई देता नहीं है। जिसकी कर्णशष्कुलि विघात पाती है - कट जाती है या उसमें छेद होता है वह व्यक्ति बहरा कहा जाता है । उसके द्वारा कम सुनाई देता है । (५) 1 एक, दो, तीन आदि व्यवहार में कारणभूतगुण एकत्व, द्वित्व आदि संख्या है। वह संख्या एक द्रव्य में भी रहती है और अनेक द्रव्यो में भी रहती है। एकत्वसंख्या एक द्रव्य में रहती है। द्वित्वादिसंख्या अनेक द्रव्यो में रहती है। एक द्रव्य में रहनेवाली एकत्वसंख्या जलादि के परमाणुओं में तथा कार्य द्रव्य में रहनेवाले रुपादि गुणो की तरह नित्य भी होती है और अनित्य भी होती है। (परमाणु में नित्य, कार्यद्रव्य में अनित्य ।) कार्यद्रव्य की एकत्वसंख्या कारण की एकत्वसंख्या से उत्पन्न होती है। अनेकद्रव्यो में रहनेवाली द्वित्वादिसंख्या अनेक पदार्थों के एकत्व का विषय करनेवाली अपेक्षाबुद्धि से उत्पन्न होती है। वह द्वित्वादिसंख्या अपेक्षाबुद्धि के नाश से नाश होती है और कभी आधारभूतद्रव्य के नाश से नाश होता है। (कहने का मतलब यह है कि अनेक द्रव्यो में रहनेवाली द्वित्वादिसंख्या अपेक्षाबुद्धि से उत्पन्न होती है। तथा उस अपेक्षाबुद्धि के नाश से भी उसका नाश होता है। दो या तीन पदार्थो को देखकर "यह एक, यह एक और यह एक " ऐसी अनेक पदार्थों के एकत्व को विषय करनेवाली अपेक्षाबुद्धि उत्पन्न होती है वह अपेक्षाबुद्धि से उस पदार्थो में द्वित्वादि संख्या उत्पन्न होती है। जब वह अपेक्षाबुद्धि नष्ट होती है, तब वह संख्या का भी नाश होता है। वैसे ही द्वित्वादिसंख्याएँ रुपादि की तरह घट जब तक टिके तब तक रहती नहीं है। वह तो जो व्यक्ति देखती है, उसकी अपेक्षाबुद्धि से उत्पन्न होके अपेक्षाबुद्धि के नाश से नाश पाती है। जो दो पानी के गुब्बारे में किसी व्यक्ति को अपेक्षाबुद्धि से द्वित्वसंख्या उत्पन्न हुई थी, उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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