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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६२, ६३, वैशेषिक दर्शन ३२३/९४६ G-62गन्धो घ्राणग्राह्यः पृथिवीवृत्तिः, स्पर्शादेश्च गुणत्वे सति त्वगिन्द्रियग्राह्यादिकं लक्षणमितरव्यवच्छेदकम ४ । G-63शब्दः श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यो गगनवृत्तिः क्षणिकश्च । श्रोत्रेन्द्रियं चाकाशात्मकम् । अथाकाशे निरवयव इदमात्मीयं श्रोत्रमिदं च परकीयमिति विभागः कथमिति चेत् ? उच्यते, यदीयधर्माधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धं G-6"यन्नभस्तत्तस्य श्रोत्रमिति विभागः, अत एव नासिकादिरन्ध्रान्तरेण न शब्दोपलम्भः संजायते । तत्कर्णशष्कुलीविघाताद्बाधिर्यादिकं च व्यवस्थाप्यत इति ५ । संङ्ख्या तु एकादिव्यवहारहेतुरेकत्वादिलक्षणा । सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च । तत्रैकसंख्यैकद्रव्या, अनेकसङ्ख्या तु द्वित्वादिसङ्ख्या । तत्रैकद्रव्यायाः सलिलादिपरमाण्वादिगतरूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । अनेकद्रव्यायास्त्वेकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिः । अपेक्षाबुद्धिविनाशाञ्च विनाशः क्वचित्त्वाश्रयविनाशादिति ६ । 6-65प्राप्तिपूर्विका ह्यप्राप्तिर्विभागः, G-66अप्राप्तिपूर्विका च प्राप्तिः संयोगः । एतौ च द्रव्येषु यथाक्रमं विभक्तसंयुक्तप्रत्ययहेतू । अन्यतरोभयकर्मजौ विभागसंयोगौ च यथाक्रमम् । ७-८ । व्याख्या का भावानुवाद : स्पर्शेन्द्रिय से ग्राह्य स्पर्शगुण है। अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय का विषयभूत गुण स्पर्श है। यह पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु में रहता है। (१) रसनेन्द्रिय से ग्राह्य गुण रस है। वह पृथ्वी, पानी में रहता है। (२) चक्षु से ग्राह्य रुपगुण है। वह पृथ्वी, पानी और अग्नि में रहता है। वह रुप जलीय परमाणुओं में तथा तैजसीय परमाणुओ में नित्य है। तथा पार्थिवपरमाणुओ का रुप अग्नि के संयोग से नष्ट हो जाता है। सभी कार्यो में कारण के रुप से रुप उत्पन्न होता है। अर्थात् सर्व कार्यो में रहा हुआ रुप कारणरुपपूर्वक उत्पन्न होता है । (जब) व्यणुकादि कार्य उत्पन्न हो जाते है, उसके बाद उसमें रुप उत्पन्न होता है। अर्थात् पहले व्यणुकादि कार्य उत्पन्न होते है और बाद में उसमें रुप उत्पन्न होता है। क्योंकि रुपादि गुण है। इसलिए वे निराधार उत्पन्न हो सकते नहीं है। उसका आधारभूतद्रव्य होना ही चाहिए । सारांश में, निराधारकार्य का रुप उत्पन्न होता नहीं है। उसी तरह से कार्यरुप के विनाश में आधार का विनाश ही हेतु है। इसलिए पहले (१)कार्यद्रव्यनाश होता है। उसके बाद रुप का विनाश होता है। यह प्रक्रिया बहोत जल्दी होती होने से क्रम का ग्रहण नहीं होता है। (क्षण इतनी सूक्ष्म होती है कि, वह हमारी दृष्टि में आती नहीं है। उसी कारण से कार्यद्रव्य के विनाश को और उसके रुप के विनाश को एक ही क्षण में मान लेते है। इसलिए क्रमशः होती प्रक्रिया हमारी दृष्टि में आती नहीं है।) (३) (१) एक ओर कहते है कि गुण निराधार रह सकता नहीं है और दूसरी ओर कहते है कि कार्यद्रव्य = आधार का नाश होगा, उसकी दूसरी क्षण में रुप गुण नाश होता है, तो गुण एकक्षण निराधार न बना? परस्पर विरुद्ध बात है, वह जैनदर्शन में आगे बताई गई है। (G-62-63-64-65-66) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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