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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६२, ६३, वैशेषिक दर्शन ३२५/९४८ गुब्बारे का दूसरी क्षण में नाश होने से, द्वित्वसंख्या भी आधारभूतद्रव्य के नाश से नाश होती है।) प्राप्तिपूर्विका अप्राप्ति विभाग कही जाती है। अर्थात् जो पहले संयुक्त हो और बाद में अलग हो जाना, उसे विभाग कहा जाता है। अप्राप्तिपूर्विका प्राप्ति को संयोग कहा जाता है। अर्थात् जो पहले अलग-अलग थे, उनका मिलन होना, उसे संयोग कहा जाता है। यह विभाग और संयोग पदार्थों में क्रमशः “विभक्त = अलग-अलग होना" और "संयुक्त = एकठ्ठा होना" - यह प्रत्यय व्यवहार का हेतु है। दो में से एक पदार्थ में क्रिया होने से या दोनो पदार्थो में क्रिया होने से विभाग और संयोग होते है। (अर्थात् जिन दो पदार्थो का विभाग या संयोग होनेवाला है, उसमें कभी दो में से एक पदार्थ में ही क्रिया होती है और कभी दोनो पदार्थ में क्रिया होती है। जैसे कि, पक्षी का उडकर वृक्ष की शाखा के उपर बैठना और उड जाना । यहाँ पक्षी का वृक्ष के साथ का सयोग और उन दोनो का विभाग हुआ । उसमें क्रिया केवल पक्षी में होती है। जब दो कुस्तीबाज कुस्ती करे तब संयोग और विभाग होते है। उसमें दोनो में क्रिया होती है। इस प्रकार संयोग और विभाग दो पदार्थों में होती क्रिया से या एक पदार्थ की क्रिया से उत्पन्न होते है।) (७-८) परिमाणव्यवहारकारणं परिमाणम्-67 । तञ्चतुर्विधं, महदणु दीर्घ ह्रस्वं च । तत्र महद्द्विविधं, नित्यमनित्यं च । नित्यमाकाशकालदिगात्मसु परममहत्त्वम् । अनित्यं व्यणुकादिपुत्र्यणुकादिषु द्रव्येषु । अण्वपि नित्यानित्यभेदाद्विविधम् । परमाणुमनःसु पारिमाण्डल्यलक्षणं नित्यम् । अनित्यं व्यणुक एव । बदरामलकबिल्वादिषु बिल्वामलकबदरादिषु च क्रमेण यथोत्तरं महत्त्वस्याणुत्वस्य च व्यवहारो विभक्तोऽवसेयः, आमलकादिषभयस्यापि व्यवहारात् । एवमिक्षौ समिद्वंशाद्यपेक्षया ह्रस्वत्वदीर्घत्वयोर्भाक्तत्वं ज्ञेयम् । ननु महद्दीर्घयोस्त्र्यणुकादिषु वर्तमानयोzणुके चाणुत्वहस्वत्वयोः को विशेषः ? महत्सु दीर्घमानीयतां दीर्थेषु महदानीयतामिति व्यवहारभेदप्रतीतेरस्ति तयोः परस्परतो भेदः । अणुत्वहस्वत्वयोस्तु विशेषो योगिनां तद्दर्शिनामध्यक्ष एव ९ । संयुक्तमपि द्रव्यं यद्वशादत्रेदं पृथगित्यपोध्रियते, तदपोद्धारव्यवहारकारणं पृथक्त्वम् १०G-68 । इदं परमिदमपरमिति यतोऽभिधानप्रत्ययौ भवतः, तद्यथाक्रमं परत्वमपरत्वं6-69 च । द्वितयमप्येतत् दिकृतं कालकृतं च । तत्र दिकृतस्येत्थमुत्पत्तिः-एकस्यां दिशि स्थितयोरेकस्य द्रष्टुरपेक्षया सन्निकृष्टमवधिकृत्वैतस्माद्विप्रकृष्टस्य परेण दिप्रदेशेन योगात्परत्वमुत्पद्यते, विप्रकृष्टं चावधिंकृत्वैतस्मात्सन्निकृष्टस्यापरेण दिकप्रदेशेन योगादपरत्वमुत्पद्यते । कालकृतं त्वेवमुत्पद्यतेवर्तमानकालयोरनियतदिग्देशसंयुक्तयोर्युवस्थविरयोर्मध्ये युवानमवधिंकृत्वा चिरकालीनस्य (G-67-68-69) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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