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________________ ३२०/९४३ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६१ वैशेषिक दर्शन मन की सिद्धि का लिंग है। अर्थात् एकसाथ ज्ञानो की उत्पत्ति न होना, वही मन के सद्भाव का प्रबल साधक है। आत्मा सर्वगत होने से एकसाथ सभी इन्द्रियो और पदार्थो का सन्निधान कर सकता होने पर भी ज्ञान की उत्पत्ति क्रम से ही होती है। इस क्रम के द्वारा ही होते ज्ञानोत्पत्ति के उपलंभ से मन का अनुमान होता है। आत्मा और इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से अतिरिक्त (ज्ञानोत्पत्ति में) दूसरा कारण है और वही मन है। जब मन का (इन्द्रियो के साथ) सन्निधान हो, तब ज्ञान की उत्पत्ति होती है और जब मन का (इन्द्रियों के साथे सन्निधान नहीं है, तब ज्ञान की उत्पत्ति होती नहीं है। (कहने का मतलब यह है कि, आत्मा तो सर्वव्यापक है। इसलिए उसका एकसाथ सभी इन्द्रियों के साथ संयोग है ही। पदार्थो के साथ इन्द्रियो का भी एक साथ संयोग हो सकता है। जैसे कि, एक आम को चोसते वक्त रुप, रस, गंध, स्पर्श आदि सभी के साथ इन्द्रियो का एकसाथ संबंध हो रहा है। तो भी रुपादि पांच ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते नहीं है, परंतु क्रम से ही उत्पन्न होते है। इस क्रमोत्पत्ति से मालूम होता है कि कोई एक सूक्ष्मपदार्थ है कि जिसके क्रमिकसंयोग से ज्ञान एकसाथ उत्पन्न न होते हुए क्रमशः उत्पन्न होता है। आत्मा, इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से अतिरिक्त मन नाम का कारण अवश्य है। उसका जिस इन्द्रिय के साथ संयोग होता है, उस इन्द्रिय से ज्ञान उत्पन्न होता है। अन्य से नहीं। उसका संयोग ही ज्ञानोत्पत्ति का कारण बनता है। यदि मन का संयोग न हो तो इन्द्रिय का पदार्थ के साथ संयोग होने पर भी ज्ञानोत्पत्ति होती नहीं है। जैसे कि, रास्ते में चलते हुए मन दूसरी जगह हो, तब सामने दिखती हुए व्यक्ति का भी ज्ञान होता नहीं है।) __ (जब मनुष्य मृत्यु को प्राप्त करता है, तब वह मन मृत-शरीर में से निकल के स्वर्ग आदि में जाता है और वहाँ स्वर्गीय दिव्य शरीर के साथ संबंध करके, उसका उपभोग करता है। जब मनुष्य मृत्यु पाता है, तब मन का स्थूलशरीर के साथ का संबंध छूट जाता है। वह मन उस समय अदृष्ट पुण्य-पाप के अनुसार वहीं तैयार हुए अत्यंतसूक्ष्म आतिवाहकलिंग शरीर में प्रवेश करता है और उसके द्वारा स्वर्ग तक पहुंच जाता है । जीव के अदृष्टानुसार मृत्यु के बाद ही परमाणुओ में क्रिया होती है। उस क्रिया के द्वारा व्यणुक-त्र्यणुक आदि क्रम से अत्यंतसूक्ष्म आतिवाहिकशरीर बन जाता है। वह सूक्ष्मशरीर इन्द्रिय का विषय बनता नहीं है । मन केवल अकेला उस आतिवाहिकशरीर के बिना स्वर्ग या नर्क तक पहुंचता नहीं है। वह शरीर मन को स्वर्गादि तक पहुंचाता है।) पंक्ति का भावानुवाद : तस्य मनसो.... मृतशरीर में से निकला हुआ वह मन, मृतशरीर के नजदीक में जीव के अदृष्ट के वश से परमाणुओ में उत्पन्न हुए क्रिया के द्वारा व्यणुक-त्र्यणुक आदि के क्रम से अतिसूक्ष्म - इन्द्रिय अगोचर शरीर में प्रवेश करके स्वर्गादि में जाता है। वहीं स्वर्गीयादि भोग्य शरीरो के साथ संबंध करता है और उसको भोग करता है। यह मन अकेला सूक्ष्म शरीर के बिना इतनी दूर गति कर सकता नहीं है। इसलिए मृत्यु और जन्म के बीच रहा हुआ सूक्ष्मशरीर मन को स्वर्ग-नरकादि देश तक ले जाने के धर्मवाला होने से आतिवाहिक कहा जाता है।) यहाँ द्वन्द्व समास होके “कालदिगात्ममनांसि" पद बना हुआ है। "च" समुच्चयार्थक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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