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________________ ३१२/ ९३५ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन श्चेत्येवमादयोऽनेके तर्कग्रन्थाः । दिगम्बराणां तु प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्र आप्तपरीक्षाष्टसहस्री सिद्धान्तसारो न्यायविनिश्चयटीका चैत्यादयः ।।१८।। इति श्रीतपोगणनभोङ्गणदिनमणिश्रीदेवसुन्दरसूरिपदपद्मोपजीविश्रीगुणरत्नसूरिविरचिततायां तर्करहस्यदीपिकायां षड्दर्शनसमुञ्चयटीकायां जैनमतस्वरूपनिर्णयो नाम चतुर्थोऽधिकारः ।। व्याख्या का भावानुवाद : पहले उस उस दर्शन की उस उस मान्यता का अनुसरण करते श्लोको की व्याख्या में, जो जो दर्शनकारोने अपनी मान्यता में स्याद्वाद का स्वीकार किया है वह बताया था। वे सभी भी पूर्वोपरविरुद्धतया सर्वदर्शनो में यहा यथायोग्य बताना चाहिए । क्योंकि बौद्धादि पहले कहे हुए प्रकार से स्याद्वाद को मानते होने पर भी उस स्याद्वाद सिद्धांत के खंडन के लिए अनेक युक्तियां-कुतर्क देते है, तब उनको पूर्वापर विरुद्धवादि क्यों न कहा जाये? अर्थात् एक ओर अपने शास्त्रव्यवहार में स्याद्वाद का स्वीकार करना और दूसरी ओर स्याद्वाद का खंडन करना वह परस्पर विरुद्ध है। दहीं और ऊडद में से बने हुए भोजन में से काले उडद बीनने के समान कितने अन्य दर्शनो के दोषो का विवेचन करे । इसलिए यहाँ पूर्वापरविरोधरुप दोष को ढूंढने की प्रक्रिया के उपर विराम रखा जाता है। __ चार्वाक तो बिचारा अवज्ञायोग्य है । चार्वाक आत्मा और आत्मा के आश्रय में रहे हुए धर्माधर्म, अनेकांत, स्वर्ग, अपवर्ग आदि सभी को मानता ही नहीं है। इसलिए उसकी अवज्ञा ही करने जैसी है। चार्वाव को अनेकांत का स्वीकार करने तथा उसके मत में पूर्वापर विरोध कहने का कोई भी प्रयोजन नहीं है। क्योंकि उसने कहीं हुई सभी बाते लोकप्रतीति तथा सर्वदर्शनो के शास्त्रो से विरुद्ध है। मूर्त ऐसे भूतो से अमूर्त चैतन्य की उत्पत्ति विरुद्ध है। चैतन्य भूतो से उत्पन्न होता या किसी जगह से आता दिखाई नहीं देता है। चैतन्य तो आत्मा का अपना धर्म है और जैसे आत्मा का इन्द्रियप्रत्यक्ष होता नहीं है परंतु मानसप्रत्यक्ष होता है। उस तरह से चैतन्य का भी इन्द्रियप्रत्यक्ष होता नहीं है, मानसप्रत्यक्ष होता है। इस अनुसार से सभी अन्य बौद्धादिदर्शनकारो के आगम पूर्वापरविरुद्ध वचनो से व्याप्त होने के कारण अपने ग्रंथप्रणेता की असर्वज्ञता को सिद्ध करते है। सर्वज्ञमूलता को सिद्ध करते नहीं है। परन्तु जैन दर्शन में सभी पूर्वापरविरोधो का अभाव होने से जैनागमो की सर्वज्ञमूलता को ही प्रकट करते है। इसलिए जैन मत ही सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित है, तथा सत्य है वह निश्चित होता है। __ श्लोक में मूलग्रंथ में नहि कहा हुआ भी कुछ कहा जाता है - वैशेषिक, नैयायिक मीमांसक और सांख्य चक्षु आदि सर्व इन्द्रियो को प्राप्यकारी-पदार्थो को प्राप्त करके, उससे सन्निकर्ष करके ज्ञान उत्पन्न करनेवाली मानते है.. बौद्ध चक्षु और श्रोत्र से अतिरिक्त इन्द्रियो को प्राप्यकारी कहते है। स्याद्वादि जैन चक्षु से अतिरिक्त सर्व इन्द्रियो को प्राप्यकारी मानते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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