________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५८, जैनदर्शन
३१३ / ९३६
श्वेताम्बरो के संमतितर्क, नयचक्रवाल, स्याद्वादरत्नाकर, रत्नाकरावतारिका, तत्त्वार्थप्रमाणवार्तिक, प्रमाणमीमांसा, न्यायावतार, अनेकांतजयपताका, अनेकांतप्रवेश, धर्मसंग्रहिणी, प्रमेयरत्नकोश इत्यादि अनेक तर्कग्रंथ है । दिगंबरो के प्रमेयकमलमार्तंड, न्यायकुमुदचंद्र, आप्तपरीक्षा, अष्टसहस्त्री, सिद्धांतसार तथा न्यायविनिश्चियटीका इत्यादि तर्कग्रंथ है । (५८) ।
-
इस अनुसार से श्रीतपागच्छरुपी आकाशमंडल में सूर्य जैसे तेजस्वी पू. श्री देवसूरीश्वरजी महाराजा के चरणसेवी श्रीगुणरत्नसूरीश्वरजी महाराजा विरचित तर्करहस्यदीपिका नाम की षड्दर्शन समुच्चय ग्रंथ की टीका में जैनमत के स्वरुप का निर्णायक चौथा अधिकार भावानुवाद सहित सानंद पूर्ण होता है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org