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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन को स्व-प्रकाशक मानते नहीं है । तो किस तरह से यथार्थवादि कहे जायेंगे ? (अर्थात् दीपक की स्व-पर प्रकाशकता की उपेक्षा करके, उससे सिद्ध होती ज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता का निषेध करनेवाले वे लोग किस तरह से यथार्थवादि कहे जायेंगे ?) (कुमारिल भट्ट की मान्यता है कि अयं घटः ऐसा ज्ञान जब उत्पन्न होता है, तब ही ज्ञान के विषय घट में "ज्ञातता" नामके पदार्थ की उत्पत्ति होती है। "ज्ञातो घटः " यह प्रतीति ज्ञातता की साधक है। यह ज्ञातता ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय कराती है ।) ब्रह्माद्वैतवादी प्रत्यक्ष से अविद्यारहित सन्मात्रब्रह्म का साक्षात्कार करते है । परंतु प्रत्यक्ष को निषेधक निषेध करनेवाला मानते नहीं है । जब प्रत्यक्ष अविद्या का निषेध करके सन्मात्र ब्रह्म का अनुभव कर रहा है, तब वह निषेधक तो अपनेआप सिद्ध हो जाता है। एक ओर प्रत्यक्ष से अविद्या का निषेध भी करना और दूसरी ओर प्रत्यक्ष को निषेधक न मानना, वह परस्पर विरुद्ध है। ३११ / ९३४ इसी तरह से पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसावाले शास्त्रो में किसी भी ईश्वर का स्वीकार नहि किया गया है। परंतु वे सभी भी व्यवहार में ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देवो की पूजा-उपासना करते है तथा उन देवो का ध्यान करते है। यह भी पूर्वापरविरोध है। अथवा ये ये बौद्धादिदर्शनेषु स्याद्वादाभ्युपगमाः प्राचीनश्लोकव्याख्यायां प्रदर्शिताः ते सर्वेऽपि पूर्वापरविरुद्धतयात्रापि सर्वदर्शनेषु यथास्वं दर्शयितव्याः, यतो बौद्धादय उक्तप्रकारेण स्याद्वादं स्वीकुर्वन्तोऽपि तन्निरासाय च युक्तीः स्फोरयन्तः 'पूर्वापरविरुद्धवादिनः कथं न भवेयुः । कियन्तो वा दधिमाषभोजनात्कृष्णा विविच्यन्त इत्युपम् ।। चार्वाकस्तु वराक आत्मतदाश्रितधर्माधर्मानेकान्तस्वर्गापवर्गादिकं सर्वं कुग्रहग्रहिलतयैवाप्रतिपद्यमानोऽवज्ञोपहत एव कर्तव्यः, न पुनस्तं प्रत्यनेकान्ताभ्युपगमोपन्यासेन पूर्वापरोक्तविरोधप्रकाशनेन वा किमपि प्रयोजनं, सर्वस्य तदुक्तस्य सर्वलोकशास्त्रैः सह विरुद्धत्वात् । मूर्तेभ्यो भूतेभ्योऽमूर्तचैतन्योत्पादस्य विरुद्धत्वाद्भूतेभ्य उत्पद्यमानस्यान्यत आगच्छतो वा चैतन्यस्यादर्शनात्, आत्मवच्चैतन्यस्याप्यैन्द्रियकप्रत्यक्षाविषयत्वात् इत्यादि, तदेवं बौद्धादीनामन्येषां सर्वेषामागमाः प्रत्युत स्वप्रणेतॄणामसर्वज्ञत्वमेव साधयन्ति, न पुनः सर्वज्ञमूलतां, पूर्वापरविरुद्धार्थवचनोपेतत्वात् । जैनमतं तु सर्वं पूर्वापरविरोधाभावात्स्वस्य सर्वज्ञमूलतामेवावेदयतीति स्थितम् ।। अथानुक्तमपि किमपि लिख्यते । प्राप्यकारीण्येवेन्द्रियाणीति कणभक्षाक्षपादमीमांसकसांख्याः समाख्यान्ति । चक्षुःश्रोत्रेतराणि तथेति ताथागताः । चक्षुर्वर्जानीति स्याद्वादावदातहृदयाः । श्वेताम्बराणां संमतिर्नयचक्रवालः स्याद्वादरत्नाकरो रत्नाकरावतारिका तत्त्वार्थः प्रमाणवार्त्तिकं प्रमाणमीमांसान्यायावतारोऽनेकान्तजयपताकानेकान्तप्रवेशो धर्मसंग्रहिणी प्रमेयरत्नकोश १. पूर्वापराविरुद्धवादिनः कथं भवेयुः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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