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________________ ३१०/९३३ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन समस्तधन का हरण करने आये तब बोला जाता, ये पांच असत्य अपातक - पापरुप नहीं है।" ऐसा वेद में कहा गया है। यह भी पूर्वापरविरोध ही है। (२) उसी अनुसार से अदत्तादान (चोरी) का अनेक प्रकार से निषेध करके बाद में कहा जाता है कि "यद्यपि ब्राह्मण हठ से या छल से दूसरो का ग्रहण करते है-चुरा लेते है, तो भी ब्राह्मण को अदत्तादान नहीं है। क्योंकि संसार की समस्तसंपत्ति ब्राह्मणो को दी हुई है। परंतु ब्राह्मणो की निर्बलता होने से शुद्रो उस संपत्ति को भुगतते है। इसलिए अपनी ही उस संपत्ति का ग्रहण करता हुआ ब्राह्मण अपना ही ग्रहण करते है और अपना ही भुगतते है। अपने में ही रहते है और अपना ही देते है।..." इस प्रकार यहाँ भी वेद में परस्परविरोधी वचन है । (३) ___ उसी अनुसार से "अपुत्रीयों गति होती नहीं है-सद्गति होती नहीं है"-ऐसा कहकर बाद में कहा जाता है कि "हजारो ब्रह्मचारी विप्रकुमार अपनी कुलपरंपरा को चलाये बिना भी स्वर्ग में गये है"इस अनुसार से परस्परविरोध है । तथा "मांसभक्षण में, मद्यपान में और मैथुनसेवन में दोष नहीं है। उसमें तो जीवो की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही होती है, फिर भी उन तीनो को त्याग महाफल को देता है" -- इस स्मृति के श्लोक में स्पष्टतया विरोधी बातें की है। यदि उन तीनो में की जाती प्रवृत्ति निर्दोष है। तो उन तीनो की निवृत्ति महाफल को किस तरह से दे सकती है? इसलिए परस्पर विरुद्ध ही बात है। (४) वेदविहित याज्ञिकहिंसा को धर्म कहना वह तो स्पष्ट रुप से स्ववचनविरोध है। यहि वह धर्म का कारण है, तो हिंसा किस तरह से होगी? और यदि वह हिंसा है तो धर्म का कारण किस तरह से होगी? "माता भी हो और वन्ध्या (बांज) भी हो" - यह बात तो असंभवित है। हिंसा तीनकाल में भी धर्म का कारण बनती नहीं है। शास्त्र में धर्म का (अहिंसात्मक) लक्षण बताया है - "जो व्यवहार हमको प्रतिकूल लगता है। दुःखदायक लगता है। वैसा व्यवहार दूसरो के साथ नहिं करना चाहिए । यह सर्व धर्मो का सार है। वह धर्म सर्वस्व है । इसको अच्छी तरह से सुनके धारण करे ।" अर्चिमार्गि वेदांतीओने उस हिंसा की कठोर शब्दो मे निंदा करते हुए कहा है कि "जो लोग पशुओ का वध करके यज्ञ करते है, ईश्वर की पूजा करते है, वे घोर अंधकार में डूबते है । हिंसा कभी भी धर्मरुप नहीं थी या कभी भी धर्मरुप नहीं होगी।" तथा परलोक में गये हुए मृतव्यक्तिओ की तृप्ति के लिए श्राद्ध आदि विधान करते है वह भी अविचारित रमणीय है। आपके ही पक्ष वाले कहते है कि.... 'यदि श्राद्ध मृतव्यक्तिओं की तृप्ति का कारण बनता हो, तो बुझा हुआ दीपक भी तेल डालने मात्र से जलने लगेगा । (५) __ इस अनुसार से अन्य भी पुराणों में कहे हुए पूर्वापर विरुद्ध वचन संदेहसमुच्चयग्रंथ से अवतरण करके यहाँ सोच लेना। __ज्ञान को नित्यपरोक्ष माननेवाले भाट्ट लोग (कुमारिल भट्ट के अनुयायी) "स्वात्मा में क्रिया का विरोध होने से ज्ञान को स्व-प्रकाशक मानते नहीं है, वे लोग दीपक को स्व-पर प्रकाशक देखते होने पर भी ज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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