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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन (कि जिनको आप प्रमाण मानते हो वह भी) अप्रमाण बन जाने की आपत्ति आयेगी । "यह घट है, यह घट है", ऐसे गृहीतग्राहि धारावाहिज्ञानो को नैयायिक और वैशेषिक अप्रमाणभूत मानते नहीं है। प्रमाणभूत ही मानते है । ३०५ / ९२८ I यदि पदार्थ से उत्पन्न न होने के कारण स्मृति अप्रमाणभूत हो, तो अतीतादिविषयक अनुमान भी पदार्थ से उत्पन्न होता न होने से अप्रमाण बन जायेगा । (अर्थात् अतीत और अनागत पदार्थों का अनुमान भी अप्रमाण हो जायेगा । अतीत और अनागत पदार्थ विनष्ट और अनुत्पन्न होने से असत् है । इसलिए उससे अनुमान की उत्पत्ति नहि हो सकती फिर भी ) नैयायिक और वैशेषिक आगम की तरह अनुमान को भी त्रिकालविषयक मानते है। धूम से वर्तमानकालीन अग्नि का अनुमान होता है । मेघोन्नति से विशिष्टघन घिरे हुए बादलो को देखकर होनेवाली बारीश का अनुमान किया जाता है - अनागतवृष्टि का अनुमान किया जाता है। नदी की बाढ को देखकर अतीतवृष्टि का अनुमान किया जाता है। इसलिए इस अनुसार से धारावाहिज्ञानो और अनुमान के साथ स्मृति की समानता होने पर भी नैयायिक और वैशेषिक स्मृति को अप्रमाणभूत मानते है और धारावाहिज्ञानादि को प्रमाणभूत मानते है, वह पूर्वापरविरोध है। (९) ईश्वरस्य सर्वार्थविषयं प्रत्यक्षं किमिन्द्रियार्थसंनिकर्षनिरपेक्षमिष्यत आहोस्विदिन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नम् ? यदीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिरपेक्षं तदेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमित्यत्रं सूत्रे संनिकर्षोपादानं निरर्थकं भवेत्, ईश्वरप्रत्यक्षस्य संनिकर्षं विनापि भावात् । अथेश्वरप्रत्यक्षमिन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नमेवाभिप्रेयत इति चेत् ? उच्यते, नहीश्वर संबन्धिमनसोऽणुपरिमाणत्वाद्युगपत्सर्वाथैः संयोगो भवेत्, ततश्चैकमर्थं स यदा तदा नापरान् सतोऽप्यर्थान् ततोऽस्मदादिवन्न तस्य कदापि सर्वज्ञता, युगपत्संनिकर्षासंभवेन सर्वार्थानां युगपदवेदनात् । अथ सर्वार्थानां क्रमेण संवेदनात् सर्वज्ञ इति चेत् ? न, बहुना कालेन सर्वार्थसंवेदनस्य खण्डपरशाविवास्मदादिष्वपि संभवात्ते ( अस्मदादयो ) ऽपि सर्वज्ञाः प्रसजेयुः । अपि च अतीतानागतानामर्थानां विनष्टानुत्पन्नत्वादेव मनसा संनिकर्षो न भवेत्, सतामेव संयोगसंभवात्तेषां च तदानीमसत्त्वात्, ततः कथं महेश्वरस्य ज्ञानमतीतानागतार्थग्राहकं स्यात्, सर्वार्थग्राहकं च तज्ज्ञानमिष्यते ततः पूर्वापरो विरोधः सुबोधः । एवं योगिनामपि सर्वार्थसंवेदनं दुर्धरविरोधरुद्धमवबोद्धव्यम् १० । कार्यद्रव्ये प्रागुत्पन्ने सति तस्य रूपं पश्चादुत्पद्यते निराश्रयस्य रूपस्य गुणत्वात्प्रागनुत्पादनेति पूर्वमुक्त्वा पश्चाच्च कार्यद्रव्ये विनष्टे तद्रूपं विनश्यतीत्युच्यमानं पूर्वापरविरुद्धं भवेत्, यत्रोऽत्र रूपं कार्ये विनष्टे सति निराश्रयं स्थितं सत् पश्चाद्विनश्येदिति ।।११।। व्याख्या का भावानुवाद : (नैयायिक और वैशेषिक ईश्वर को जगत के सर्वपदार्थो के ज्ञाता मानते है ।) ईश्वर का वह सर्वार्थविषयक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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