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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन
देते है और दूसरी ओर शास्त्रार्थ में दूसरो को ठगने के लिए, भूलावे में डालने के लिए छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे छल-कपट के उपायों को तत्त्व मानते है । क्या उनका यह अंधकार को प्रकाश कहने समान स्ववचनविरोध नहीं है ?) (४)
आकाश को निरवयवद्रव्य के रुप में स्वीकार करके शब्द को आकाश का गुण कहते है तथा आकाश का शब्द गुण आकाश के एक देश में ही सुनाई देता है - सर्वदेशो में नहि, इस तरह से आकाश की सावयवता को कहते है। अर्थात् एक ओर आकाश को निरवयव मानते और दूसरी ओर आकाश की सावयवता सिद्ध हो वैसा कहते, नैयायिको और वैशेषिको को किस तरह से स्ववचनविरोध नहीं है ? (५) __ नैयायिको सत्ता के संबंध को सत्त्व कहते है और एक सत्तासामान्य का सभी (भिन्न-भिन्न देशवर्ती) सत् पदार्थो के साथ संबंध तब ही हो सकता है कि जब सामान्य में सांशता हो । अर्थात् सामान्य में सांशता - अंश सहितता हो, तब ही वह विभिन्न देश के साथ संबंध कर सके अन्यथा नहि । इस तरह से एक ओर सर्वपदार्थो में सत्तासामान्य का स्वीकार करके उसकी सांशता का स्वीकार किया और दूसरी ओर सामान्य को निरंश और एक मानते हो तो किस तरह से पूर्वापरविरोध नहीं है ? (६)
इस तरह से नैयायिक समवाय को नित्य और एक स्वभाववाला भी कहते है तथा दूसरी ओर सर्व समवायी के साथ नियतसंबंध करनेवाला भी मानते है। क्योंकि समवाय का भिन्न-भिन्न समवायीओ में संबंध समवाय की अनेकस्वभावता होगा तो ही संभव बनता है। अर्थात् घट और रुप का तथा ज्ञान और आत्मा का समवाय भिन्न है। इसलिए भिन्न-भिन्न समवायीओं में रहनेवाला समवाय एक स्वभाववाला रह सकता ही नहीं है। अन्यथा सर्व में एक ही प्रकार का समवाय होगा, परंतु वैसा नहीं है। उपर कहा वैसे घट और रुप के समवाय से ज्ञान और आत्मा का समवाय भिन्न है। इस तरह से नैयायिक एक ओर समवाय को नित्य और एक स्वभाववाला मानते है और दूसरी ओर सर्व संबंधीओ के साथ नियत संबंध रखने का विधान करके समवाय की अनेकस्वभावता को कहते है, तो वह क्या उनका स्ववचनविरोध नहीं है ? (७) __ "प्रमाण अर्थवाला होता है" - ऐसा विधान नैयायिक करते है। उसमें "अर्थवत्" की व्याख्या करते हुए कहते है कि, प्रमाणज्ञान में अर्थ = पदार्थ सहकारीकारण होता है। इसलिए प्रमाण अर्थवाला कहा जाता है। इस अनुसार कहकर योगीप्रत्यक्ष में अतीत और अनागतपदार्थको विषय कहते नैयायिको को पूर्वापरविरोध क्यों न हो ? क्योंकि अतीतादि पदार्थ प्रमाणज्ञान में सहाकारी कारण बन सकते नहीं है। इस प्रकार एक ओर अर्थकारणतावाद को कहना और दूसरी ओर योगीयों के प्रत्यक्ष को अतीत कि जो विनष्ट है तथा अनागत कि जो अनुत्पन्न है, वह पदार्थो को विषय करनेवाला कहना वह स्पष्ट रुप से पूर्वापरविरोध है ।(८)
(अब नैयायिक स्मृति को अप्रमाणभूत मानते है। उसमें भी पूर्वापरविरोध बताया जाता है ।) आप नैयायिक स्मृति को क्यों अप्रमाण मानते हो? क्या वह गृहीतग्राही अर्थात् जाने हुए अर्थ को ग्रहण करता है इसलिए अप्रमाण मानते हो या वह पदार्थ से उत्पन्न होती न होने के कारण अप्रमाण मानते हो? "यदि स्मृति गृहीतग्राहि होने से अप्रमाण है।" वैसा कहोंगे तो वह उचित नहीं है। क्योंकि धारावाहिज्ञान
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