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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक -५८, जैनदर्शन ३०३/९२६ स्मृतिर्गृहीतग्राहित्चेन न प्रमाणमिष्यते अनर्थजन्यत्वेन वा ? गृहीतग्राहित्वेन स्मृतेरप्रामाण्ये धारावाहिज्ञानानामपि गृहीतग्राहित्चेनाप्रामाण्यप्रसङ्गः । न च धारावाहिज्ञानानामप्रामाण्यं नैयायिकवैशेषिकैः स्वीक्रियते, अनर्थजन्यत्वेन तु स्मृतेरप्रामाण्येऽतीतानागतादिविषयस्यानुमानस्याप्यनर्थजन्यत्वेनाप्रामाण्यं भवेत्, त्रिकालविषयं ते चानुमानं शब्दवदिष्यते, धूमेन हि वर्तमानोऽग्निरनुमीयते मेघोन्नत्या भविष्यन्ती वृष्टिर्नदीपूरेण च सैव भूतेति, तदेवं धारावाहिज्ञानैरनुमानेन च स्मृतेः सादृश्ये सत्यपि यत्स्मृतेरप्रामाण्यं धारावाहिज्ञानादीनां च प्रामाण्यमिष्यते स पूर्वापरविरोधः ९ । व्याख्या का भावानुवाद : अब नैयायिक और वैशेषिक मत में पूर्वापरविरोध बताया जाता है। नैयायिक "सत्" पदार्थ का लक्षण करते हुए कहते है कि.. "जिसमें सत्ता का योग = संबंध = समवाय हो वह सत् है।" नैयायिकोने "सत्" पदार्थ का इस अनुसार से लक्षण कहकर सामान्य, विशेष और समवाय का सत्ता के संबंध बिना भी सद्भाव कहते है। ऐसा परस्परविरुद्ध बोलते नैयायिक का वचन क्यों व्याघात को न पायें ? (एक ओर "सत्" का लक्षण कुछ अलग करते है और दूसरी ओर पदार्थ दूसरे किसी प्रकार से भी सत् माना जाता है - यह स्पष्ट रुप से परस्परविरोध है।) (१) (नैयायिक और वैशेषिक ज्ञान को अस्वसंवेदी मानते है। उनका कहना है कि ज्ञान अपने स्वरुप को जान सकता नहीं है, क्योंकि स्वात्मा में क्रिया का विरोध है। जैसे कोई नर चाहे कितना कुशल हो तो भी वह अपने कन्धे पे चढकर नृत्य कर सकता नहीं है तथा तलवार चाहे कितनी ही तेज नोंकदार हो तो भी अपने को काट सकती नहीं है। उस तरह से ज्ञान अपने को प्रकाशित कर सकता नहीं है। इस तरह से ज्ञान को अस्वसंवेदी मानते है।) "ज्ञान अपने स्वरुप को जान सकता नहीं है, क्योंकि स्वात्मा में क्रिया का विरोध है - इस अनुसार से ज्ञान को अस्वसंवेदी कहकर ईश्वरज्ञान को स्वात्मा में क्रिया का विरोध न होने से स्वसंवेदी मानते है।" यह परस्परविरुद्ध मानते नैयायिको और वैशेषिको को किस तरह से स्ववचनविरोध नहीं है ? है ही। (२) __ अपने को अपने द्वारा प्रकाशित करता दीपक भी स्वात्मा में क्रियाविरोध होता है, उस बात का खंडन करते है। अर्थात् दीपक अपने आप ही अपने स्वरुप का प्रकाशन करता है तथा परपदार्थ को भी प्रकाशित करता है, इसलिए स्वात्मा में क्रिया के विरोध की बात निरर्थक है। दीपक के दृष्टांत से ही उस बात का खंडन हो जाता है। इस प्रकार दीपक जैसे स्व-परप्रकाशक है वैसे ज्ञान भी स्व-पर प्रकाशक है। (३) परवंचनात्मक छल-जाति-निग्रहस्थानादि का तत्त्वरुप से उपदेश देते अक्षपादऋषि का वैराग्य का वर्णन सचमुच अंधकार को प्रकाश स्वरुप बताने समान ही है। तो किस तरह से स्व-वचनविरोध न कहा जाये ? (कहने का मतलब यह है कि... अक्षपादऋषि एक ओर तत्त्वज्ञान के द्वारा वैराग्य को दृढ करने का उपदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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