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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५८, जैनदर्शन प्रतिभासित होता है। अर्थात् स्थूल घट जो प्रतिभासित होता है, वह मात्र परमाणुओ का पुंज है। परन्तु परस्पर अंगअंगिभाव रुप से = परस्परसापेक्ष बनकर स्कन्धरुप कार्य बनता नहीं है। (कहने का मतलब यह है कि जो परमाणुओ का समुदाय हमको स्थूल घटरूप में प्रतिभासित होता है, वे परमाणु असंबद्ध होने पर भी दूसरे से इतने ज्यादा करीब है कि उनका स्वतंत्रप्रतिभास होता नहीं है । स्थूल और स्थिर रूप से प्रतिभास होता है । परन्तु वह वास्तविक नहीं है । ३०२ / ९२५ उनके परमाणुपुंजवाद में ये दोष है - परस्पर परमाणु असंबद्ध होने से घट के एक देश से (घटको) हाथ से उंचा करने से वह पूर्ण घट उंचा नहीं उठेगा। परन्तु उसके कुछ परमाणु ही धारण किये जायेंगे। अर्थात् जितने परमाणु हाथ में आयेंगे उतने ही हाथ में उंचे उठेंगे, पूरा घट हाथ में उंचा नहीं उठेगा । तथा घट को उंचे फेंकने से, नीचे फेंकने से या खींचने से परस्पर असंबद्ध परमाणु बिखर जाने चाहिए । घट नाश हो जाना चाहिए तथा घट घटरूप में जो दिखता है वह नहीं दिखना चाहिए तथा घट घटरूप में न रहने से, उसमें पानी भरने की क्रिया नहीं हो सकेगी। इस तरह से आप लोग एक ओर घट को परमाणुओ का पुंज मानते है और दूसरी ओर घट में जलधारणादि अर्थक्रिया मानते हो, वह परस्पर विरुद्ध है । अर्थात् एक ओर परमाणुपुंजवाद मानना और दूसरी ओर घट में जलधारणादि अर्थक्रिया बताकर उसको सत् मानना वह परस्परविरुद्ध है । (जिसमें अर्थक्रियाकारित्व हो उसे सत् कहा जाता है। अर्थात् वस्तु अपनी क्रिया करती हो तब वह सत् कहा जाता है । बौद्धमत परमाणुपुंजवाद को मानता होने से उसके मतानुसार वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व (उपर कहे अनुसार) संगत होता नहीं है । इसलिए परमाणुपुंजवाद को भी मानना और वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व मानना वह परस्पर विरुद्ध है । (९) इस तरह से बौद्धमत में पूर्वापरविरोध है ही । तमसः प्रकाशा अथ नैयायिकवैशेषिकमतयोः पूर्वोपरतो व्याहतत्वं दर्शयते । सत्तायोगः सत्त्वमित्युक्त्वा सामान्यविशेषसमवायानां सत्तायोगमन्तरेणापि सद्भावं भाषमाणानां कथं न व्याहतं वचो भवेत् १ । ज्ञानं स्वात्मानं न वेत्ति स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्यभिधायेश्वरज्ञानं स्वात्मनि क्रियाविरोधाभावेन स्वसंवेदितमिच्छतां कथं न स्ववचनविरोधः २ । प्रदीपोऽप्यात्मानमात्मनैव प्रकाशयन् स्वात्मनि क्रियाविरोधं व्यपाकरोति ३ । परवञ्चनात्मकान्यपि छलजातिनिग्रहस्थानानि तत्त्वरूपतयोपदिशतोऽक्षपादर्षेर्वैराग्यव्यावर्णनं त्मकताप्रख्यापनमिव कथं न व्याहन्यते ४ । आकाशस्य निरवयवत्वं स्वीकृत्य तद्गुणः शब्दस्तदेकदेश एव श्रूयते न सर्वत्रेति सावयवतां ब्रुवाणस्य कथं न विरोधः ५ सत्तायोगः सत्त्वं योगश्च सर्वैर्वस्तुभिः सांशतायामेव भवति सामान्यं च निरंशमेकमभ्युपगम्यते, ततः कथं न पूर्वापरतो व्याहतिः ६ । समवायो नित्य एकस्वभावश्चेष्यते सर्वैः समवायिभिः संबन्धश्च नैयत्येन जायमानोऽनेकस्वभावतायामेव भवति, तथा च पूर्वापरविरोधः सुबोधः ७ I अर्थवत्प्रमाणमित्यत्रार्थः सहकारी यस्य तदर्थवत्प्रमाणमित्यभिधाय योगिप्रत्यक्षमतीताद्यर्थविषयमभिदधानस्य पूर्वापरविरोधः स्यात्, अतीतादेः सहकारित्वायोगात् ९ । तथा For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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