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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन पूर्वापरयोर्विरोधः ।।९।। व्याख्या का भावानुवाद : (अब बौद्धमत में आगे पूर्वापरविरोध बताया जाता है।) (एक ओर आत्माको) क्षणभंगुर कहकर (और दूसरी ओर ) " आज से इक्यानवे कल्प में मैने शक्ति से एक पुरुष को मारा था, उस कर्म के विपाक से हे भिक्षुओ ! मैं पांव में कांटो से बिंधा गया हूं।" इस श्लोक में जन्मान्तर विषयक "मे" और " अस्ति" शब्द का प्रयोग, कि जो क्षणभंगुरता का विरोधी है, वह बोलते बुद्ध को किस तरह से पूर्वापर का विरोध नहीं है ? ३०१ / ९२४ (कहने का मतलब यह है कि बुद्ध आत्मा को क्षणभंगुर कहते है और साथ साथ बुद्ध अपने शिष्यो को श्लोक में सूचित की हुई बात को कहने से जन्मान्तर में स्थायी आत्मा का भी स्वीकार करते है। किस तरह से ? उपरोक्त श्लोक के कथन से इक्यानवां कल्प और बुद्ध ने शिष्यो को विधान किया वह दिन, ये दोनो काल तक "मे" और "अस्मि" शब्द का वाच्य, जन्मांतर में अपनी सत्ता रखनेवाला स्थायी आत्मा सिद्ध हो जाता है और वह क्षणभंगुरवाद को स्पष्ट रुप से नष्ट करता है। तथा "जो में शक्ति से पुरुष को मारनेवाला था, वही मैं आज कांटो से बिंधा गया हूं।" इस प्रत्यभिज्ञान से आत्मा का स्थायित्व स्वयंमेव सिद्ध हो जाता है और वही पूर्वापर विरोध है ।) (५) (इस अनुसार से पहले वस्तु को निरंश कहकर, पिछे से उसकी अंशसहितता का कथन करना वह स्पष्ट पूर्वापरविरोध है ।) सर्ववस्तु को निरंश मानकर बाद में बौद्ध कहते है "हिंसाविरति = अहिंसाक्षण" या "दानक्षण" रुप चित्त, स्वसत्ता, द्रव्यत्व, चेतनत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति आदि अनेक अंशो को जानकर भी स्वगत सत्त्व, द्रव्यत्व और चेतनत्व आदि अंशो का निर्णय उत्पन्न करती है । परन्तु स्वगत स्वर्ग प्रापणशक्ति आदि दूसरे अंशो का निश्चय उत्पन्न कर सकती नहीं है । इस अनुसार से सांशता का पिछे से कथन करते बौद्ध को किस तरह से पूर्वापर विरोध नहीं है। अर्थात् एक ओर वस्तु की निरंशताका प्रतिपादन करना और दूसरी ओर वस्तु के (उपर बताये अनुसार) विभिन्न अंशो का निरुपण करना, वह स्पष्ट स्ववचन विरोध है। (६) - इसी अनुसार से निर्विकल्पप्रत्यक्ष को नीलादि वस्तुओ के समस्त धर्मों का ग्राहक मानकर भी उसको नीलादि अंश में निश्चय का उत्पादक मानते है और नीलादि पदार्थ के क्षणक्षयांश में निश्चय का उत्पादक मानते नहीं है। इस अनुसार से नीलादि वस्तुओ की भी सारांशता को कहते हुए बौद्ध का पूर्वापर वचन का विरोध अच्छी तरह से मालूम होता है । (७) एक ओर हेतु की त्रिरुपता का निरुपण करते तथा संशयज्ञान में विरोधी आकारो का उल्लेख करने वाले बौद्ध भी उस वस्तु की सांशता को मानते नहीं है, वह भी पूर्वापरविरोध ही है । (८) Jain Education International बौद्धो का मत है कि... (घट आदि स्थूलपदार्थो की वास्तविक सत्ता नहीं है । परन्तु) परस्पर असंबद्ध प्रत्यासत्ति को भजनेवाले (अर्थात् अत्यंत निकट निकट रहनेवाले) परमाणुओ का समुदाय ही घटरूपतया For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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