SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन प्रत्यक्ष क्या इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से निरपेक्ष मानते हो या इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न हुआ मानते हो ? (अर्थात् आप लोग ईश्वर के प्रत्यक्ष को इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से निरपेक्ष मानते हो तो (प्रत्यक्ष का जो लक्षण आपने न्यायसूत्र में दिया है, वह) "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् " इस सूत्र में "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं" विशेषण निरर्थक ही है । क्योंकि ईश्वरप्रत्यक्ष सन्निकर्ष के बिना भी उत्पन्न होता है । ३०६ / ९२९ यदि आप लोग ईश्वर के प्रत्यक्ष को इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न हुआ मानते हो तो वह भी योग्य नहीं है । क्योंकि ईश्वर को इन्द्रियां आप मानते नहीं है और ईश्वरसंबंधी मन तो अणुपरिमाणवाला होने से उसका एकसाथ सर्वपदार्थो के साथ संयोग होगा नहीं । इसलिए एक ही पदार्थ को वह ईश्वर जब जानता है, तब दूसरे पदार्थ विद्यमान होने पर भी जाने नहीं जा सकेंगे। इसलिए आपका ईश्वर हमारी तरह कभी भी सर्वज्ञ नहि बनेगा । (क्योंकि मन का एकसाथ सर्वपदार्थो के साथ सन्निकर्ष होना असंभवित होने से सर्वपदार्थो का एकसाथ ज्ञान होगा नहि । परंतु जो पदार्थ के साथ सन्निकर्ष होगा, उसका ज्ञान होगा और दूसरे पदार्थ विद्यमान होने पर भी सन्निकर्ष न होने के कारण दूसरे पदार्थों का ज्ञान होगा नहि । इसलिए उसको सर्वपदार्थो का ज्ञान न होने के कारण हमारी तरह सर्वज्ञ नहीं बन सकेगा । यदि आप "ईश्वर क्रम से सर्वपदार्थो के साथ सन्निकर्ष करके सर्वेपदार्थो को जानेंगे तब सर्वज्ञ बनेंगे ।" ऐसा कहोंगे तो बहोत काल के द्वारा ईश्वर जैसे सर्वज्ञ बन गये, वैसे हम भी सर्वपदार्थो का क्रम से सन्निकर्ष करेंगे तब सर्वज्ञ बन जायेंगे । अर्थात् क्रम से जैसे महेश्वर को जगत के सभी पदार्थो का ज्ञान होता है, वैसे हमको भी क्रम से जगत के तमाम पदार्थो का ज्ञान हो जायेगा । (शायद मान ले कि वर्तमानकालीन तमाम पदार्थो को ईश्वर किसी भी तरह से जान भी ले, तो भी) अतीतकालिन पदार्थो का नाश हो गया होने से तथा अनागतकालिन पदार्थ उत्पन्न हुए न होने से मन के साथ सन्निकर्ष को नहीं पा सकते है। अर्थात् अतीत-अनागत संबंधी पदार्थो का मन के साथ सन्निकर्ष हो सकता नहीं है। क्योंकि मन का संयोग विद्यमान (वर्तमानकालीन) पदार्थो के साथ ही संभवित होता है और वर्तमानकाल में तो अतीतअनागतकालीन पदार्थो का अभाव है । इसलिए महेश्वर का ज्ञान किस तरह से अतीत - अनागतकालीन पदार्थो का ग्राहक बन सकता है ? इस अनुसार से एक ओर महेश्वर को सर्वज्ञ मानना और दूसरी ओर उसके ज्ञान को सन्निकर्षज मानना, वह परस्पर विरुद्ध है । इसी ही तरह से अन्य योगीयों का सर्वार्थसंवेदन भी दुर्धरविरोध से घिरा हुआ ही जानना। अर्थात् योगीयों का ज्ञान भी सन्निकर्षज होगा, तो वे सर्वज्ञ हो नहीं सकेंगे । (१०) "कार्यद्रव्य पहले उत्पन्न होने पर ( अर्थात् कार्यद्रव्य पहले उत्पन्न हो और ) उस कार्यद्रव्य का रुप बाद में उत्पन्न होता है । ( अर्थात् कार्यद्रव्य जिस क्षण में उत्पन्न होगा, उसके बाद की क्षण में रुप उत्पन्न होता है ।) क्योंकि रुपादि निराश्रय = निराधार रह नहीं सकते है । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy