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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणा सिद्धावस्थाभिदधे । अपरे सुगतादयो मोक्षमवाप्यापि तीर्थनिकारादिसंभवे भूयो भवमवतरन्ति । यदाहुरन्ये-“ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ।।१।।” इति । न ते परमार्थतो मोक्षगतिभाजः कर्मक्षयाभावात् । न हि तत्त्वतः कर्मक्षये पुनर्भवावतारः । यदुक्तम्-“दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ।।१।।” [तत्वार्थ धि० भा० -१०/ ७] उक्तं च श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादैरपि भवाभिगामुकानां प्रबलमोहविजृम्भितम् । "दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य निर्वाणमप्यनवधारित-भीरनिष्टम् । मुक्तः स्वयं कृततनुश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ।।१।।” [सिद्ध० द्वा०] इत्यलं विस्तरेण । तदेवमेभिश्चतुर्भिरतिशयैः सनाथो मुक्तश्च यो देवो भवति, स एव देवत्वेनाश्रयणीयः, स एव च परान् सिद्धिं प्रापयति, न पुनरितरः सरागो भवेऽवतारवांश्च देव इत्यावेदितं मन्तव्यम् । व्याख्या का भावानुवाद :
सुर अर्थात् सभी देव । और असुर अर्थात् सब दैत्य । सुर शब्द से असुरो का संग्रह होने पर भी असुर का पृथक् ग्रहण लोकरुढि (प्रणालिका) से किया हुआ जानना । (क्योंकि) लोग देवेन्द्रो से दानवो का पृथक् निर्देश करता है। क्योंकि दानवो को देवेन्द्रो से विपक्षभूत मानते है।
वे सुर और असुरो के इन्द्रो से भगवान पूजनीय है। वैसे प्रकार से इन्द्रो से पूज्य भगवान मानव, तिर्यंच, खेचर (पक्षी), किन्नर आदि के समूह से सेव्य ही है, वैसा आनुषंगिक प्रकार से समजा जा सकता है। इस प्रकार, “सुरासुरेन्द्रसंपूज्यः" विशेषण से भगवान का "पूजातिशय" कहा गया ।
तथा भगवान जीवादिपदार्थो के यथावस्थित उपदेशक है । इस प्रकार “सद्भूतार्थप्रकाशकः" विशेषण द्वारा भगवान का वचनातिशय कहा गया ।
वैसे ही, भगवान ने घाति-अघाति सभी ज्ञानावरणादिक कर्मो का सर्वथाक्षय करके परम पद को प्राप्त किया है। इस प्रकार इस विशेषण से सभी कर्म के क्षयस्वरुप सिद्धावस्था भगवानमें कही गई । (कर्म के आठ प्रकार है। उसका वर्णन परिशिष्ट-१ में देखना।)
दूसरे दर्शन के सुगतादि देव मोक्ष प्राप्त करके भी तीर्थ के उपर आपत्ति के संभव में पुनः संसार में अवतार लेते होते है। दूसरो ने कहा है कि.... "ज्ञानी ऐसे धर्मतीर्थ के कर्ता परमपद (मोक्ष को) पाकर, फिरसे भी तीर्थ की दुर्दशा देखकर (तीर्थके उद्धारके लिए) संसार में जाते है - आते है।"
(इस तरह से संसार में पुनः आते हुए) वे देवोने परमार्थ से मोक्षगति को प्राप्त ही नहीं किया है। क्योंकि, सर्वकर्म के क्षयका अभाव है। यदि परमार्थ से संपूर्ण कर्मक्षय हुआ हो, तो संसार में फिर से अवतरित होना रहता ही नहीं है। जिससे अन्य स्थल पे कहा है कि... "जैसे बीज अत्यंत जल जाने से (उस बीज में
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