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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन ५/६२८ होने से मुक्ति के प्रतिबंधक कहे है। जिससे कहा है कि.... "यदि (इस संसार में) राग-द्वेष न होते, तो क्या कोई दुःख प्राप्त करता? और क्या कोई सुख के द्वारा विस्मय प्राप्त करता? (और आत्मभान भूल जाता?) तथा कौन मोक्ष को प्राप्त न कर लेता? अर्थात् कोई दुःख पाता है, कोई सुख के विभ्रम में पड जाता है और कोई मोक्षरुप कार्य प्राप्त नहीं कर सकता, वह राग-द्वेष का ही फल है।" इस प्रकार रागद्वेष के कारण संसार में परिभ्रमण चलता होने से) उस राग-द्वेष का उच्छेद (भगवान में) कहा गया । मोहनीयकर्म के उदय से हिंसात्मक यज्ञादि के प्रतिपादक शास्त्रो के द्वारा भी मुक्ति की आकांक्षादिस्वरुप व्यामोह को मोह कहा जाता है। वह मोह सकलजगत को दुर्जय होने से महामल्ल जैसा कहा है। वह महामल्लरुपी मोह जिसके द्वारा मारा गया है, उस महामोह के नाशक श्री जिनेश्वर भगवान है । "रागद्वेषविवर्जित" और "हतमोहमहामल्लः" ये दो विशेषणो से देव का 'अपायापगमातिशय' सूचित होता है। तथा राग-द्वेष मोह से रहित श्री अरिहंत परमात्मा ही देव है, ऐसा जानना । जिससे कहा है कि... "स्त्री के संगम से राग का तथा शत्रुओ को मारने के शस्त्रो से द्वेष का अनुमान होता है। कुचारित्र और कुशास्त्रो में प्रीति या उसका प्रतिपादन करने से मोह का अनुमान होता है। परंतु ये तीनो चिह्नो में से एक भी चिह्न जो देवका दिखता नहीं है, वे श्री अरिहंत परमात्मा है।" केवल अर्थात् अन्य कोई ज्ञान की अपेक्षा न होने के कारण असहाय या केवल अर्थात् संपूर्ण, वह केवलज्ञान और केवलदर्शन जिनको है वह श्री जिनेश्वर भगवान है। अर्थात् केवलज्ञान-केवलदर्शनात्मक भगवान है। अर्थात् वे भगवान हाथ में रहे हुए आंवले की तरह द्रव्य-पर्यायात्मक सारे जगत के स्वरुप को निरंतर जानता है और देखता है। यहां "केवलज्ञानदर्शन" पद साभिप्राय है। छद्मस्थ को पहले दर्शन उत्पन्न होता है, उसके बाद ज्ञान उत्पन्न होता है, परंतु केवलज्ञानि को प्रथम ज्ञान और बाद में दर्शन उत्पन्न होता है। (इसलिए उस पद में प्रथम ज्ञान और बाद में दर्शन लिखा है।) उसमें सामान्य-विशेषात्मक सभी प्रमेयो (वस्तुओ) में सामान्य अंश को गौण करके और विशेष अंशो को प्रधान करके जिस वस्तु का ग्राहक बनता है, उसे ज्ञान कहा जाता है तथा विशेषअंशो को गौण करके सामान्य अंश को प्रधान बनाकर जिस वस्तु का ग्राहक बनता है, उसे दर्शन कहा जाता है। यह "केवलज्ञानदर्शन" विशेषण से भगवान का 'ज्ञानातिशय' साक्षात् कहा हुआ जानना। तथा सुराः सर्वे देवाः, असुराश्च दैत्याः, सुरशब्देनासुराणां संग्रहणेऽपि पृथगुपादानं लोकरूढ्या ज्ञातव्यम् । लोको हि देवेभ्यो दानवांस्तद्विपक्षत्वेन पृथग्निर्दिशतीति । तेषामिन्द्राः स्वामिनस्तेषां तैर्वा संपूज्योऽभ्यर्चनीयः । तादृशैरपि पूज्यस्य मानवतिर्यकखेचरकिन्नरादिनिकरसेव्यत्वमानुषङ्गिकमिति । अनेन पूजातिशय उक्ताः । तथा सद्भूताः-यथावस्थिता येऽर्थाः-जीवादयः पदार्थास्तेषां प्रकाशकःउपदेशकः । अनेन वचनातिशय ऊचानः । तथा कृत्स्नानि-संपूर्णानि घात्यघातीनि कर्माणिज्ञानावरणादीनि, तेषां क्षयः-सर्वथा प्रलयः । तं कृत्वा परमं पदं-सिद्धिं संप्राप्तः । एतेन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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