SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन ७/६३० से) अंकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता है, वैसे (संसार के कारणरुप) कर्मबीज (अत्यंत) जल जाने से भवरुपी अंकुर आरोहित (अंकुरित) नहीं होता है।" ___ पू.आ.श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजीने संसार में पुनः अवतार लेनेवाले अन्य तीर्थंकरो की प्रबल मोहवृत्ति को प्रकट करते हुए कहा है कि.... "हे भगवन् ! तुम्हारे शासन को नहि समजे हुए प्रबलमोह के साम्राज्य में ऐसा कहा है कि... जिन आत्माओने कर्मरुपी इन्धन को जलाकर संसार का नाश किया है, वे भी मोक्षको छोडकर फिर से अवतार लेते है तथा मुक्त होकर भी पुनः शरीर धारण करते है। वास्तव में वे अपने आत्मा का तो कल्याण नहीं कर सके है और दूसरो के कल्याण के लिए शूरता बताते है। वह मात्र मोह का साम्राज्य ही है।' अलं विस्तरेण-विशेष विस्तार से क्या? इसलिए इस अनुसार से चार अतिशयो से सनाथ और मुक्त जो देव है, वही देवत्वेन-देव रुप में आश्रय करने योग्य है तथा वही दूसरो को सिद्धि प्राप्त करवाता है। परंतु इतर सरागि और भव में अवतार लेनेवाला देव नहि है। वह यहां सूचित होता है। __ ननु मा भूतसुगतादिको देवः, जगत्स्रष्टा त्वीश्वरः किमिति नाङ्गीक्रियते ? तत्साधकप्रमाणाभावादिति ब्रूमः । अथास्त्येव तत्साधकं प्रमाणम्-क्षित्यादिकं बुद्धिमत्कर्तृकंभ, कार्यत्वात्-8, घटादिवत् । न चायमसिद्धो हेतुः, क्षित्यादेः सावयवत्वेन कार्यत्वप्रसिद्धेः । तथाहि-उर्वीपर्वततर्वादिकं सर्वं कार्य, सावयवत्वात्, घटवत् । नापि विरुद्धः, निश्चितकर्तृके घटादौ कार्यत्वदर्शनात् । नाप्यनैकान्तिकः, निश्चिताकर्तृकेभ्यो व्योमादिभ्यो व्यावर्तमानत्वात् । नापि कालात्ययापदिष्टः, प्रत्यक्षागमाबाधितविषयत्वात् । न च वाच्यं घटकादिदृष्टान्तदृष्टासर्वज्ञत्वासर्वगतत्वकर्तृत्वादिधर्मानुरोधेन सर्वज्ञादिविशेषणविशिष्टसाध्यविपर्ययसाधनाद्विरुद्धो-9 हेतुदृष्टान्तश्च साध्यविकलो घटादौ तथाभूतबुद्धिमतोऽभावात् इति । यतः साध्यसाधनयोर्विशेषेण व्याप्तौ गृह्यमाणायां सकलानुमानोच्छेदप्रसक्तिः, किं तु सामान्येनान्वयव्यतिरेकाभ्यां हि व्याप्तिरवधार्यते । तौ चानन्त्याव्यभिचाराञ्च विशेषेषु गृहीतुं न शक्यौ । तेन बुद्धिमत्पूर्वकत्वमात्रेण कार्यत्वस्य व्याप्तिः प्रत्येतव्या, न शरीरित्वादिना । न खलु कर्तृत्वसामग्र्यां शरीरमुपयुज्यते, तद्व्यतिरेकेणापि A ईश्वर की जगत्कर्तृत्व की चर्चा भिन्न-भिन्न ग्रंथो में निम्नानुसार देखने को मिलती है। “महाभूतचतुष्टयमुपलब्धिमत्पूर्वकं कार्यत्वात्... सावयवत्वात्” - प्रशस्त० कन्द० पृ० ५४ । प्रश० व्यो० पृ० ३०१ । वैशे० उप० पृ० ६२ । “शरीरानपेक्षोत्पत्तिकं वुद्धिमत्पूर्वकम् कारणत्वात्... द्रव्येषु सावयवत्वेन तद्गुणेषु कार्यगुणत्वेन कर्मसु कर्मत्वेनैव तदनुमानात् ।।" - प्रशस्त० किराणा० पृ० ९७ । न्यायली० पृ० २०/न्यायमुक्ता० दिन० पृ०२३ । विवादाध्यासिता तनु रुहमहीधरादयः उपादानाभिज्ञकर्तुका उत्पत्तिमत्त्वात अचेतनोपादानत्वाद्वा... यथा प्रासादादि । न चैषामुत्पत्तिमत्त्वमसिद्धम्; सावयवत्वेन वा महत्त्वे सति क्रियावत्वेन वा वस्त्रादिवतत्सिद्धेः ।।" न्यायवा० ता. टी. पृ. ५९८ । न्यायमं० ।। “कार्याप्रयोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात्संख्याविशेषाञ्च साध्य विश्वविदव्ययः ।।१।।" - न्यायकुसु० पञ्चमस्त० । (E-8-9) -- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy