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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन २९५/९१८ परहेतुतमोभास्करनामकं वादस्थलं । ततः सिद्धं सर्वदर्शनसंमतमनेकान्तमतम् ।।५७।। व्याख्या का भावानुवाद : इस अनुसार से हेतु केवल सामान्यरुप या विशेषरुप हो सकता नहीं है। परस्परविविक्त = निरपेक्षरुप से स्वतंत्रसामान्य - विशेषरुप भी हो सकता नहीं है । केवल सामान्यरुप में या विशेषरुप में या परस्परनिरपेक्षतया स्वतंत्रसामान्य - विशेषरुप में हेतुत्व होता नहीं है। (इसलिए परस्परसापेक्ष सामान्यविशेषात्मकरुप ही हेतु अनेकांतात्मक साध्य का गमक बनता है। अर्थात्) परस्परसंवलित = तादात्म्य रखनेवाले सामान्य और विशेष ही अनुवृत्त = अनुगताकार प्रत्यय तथा व्यावृत्ताकार = विलक्षणप्रत्यय में कारण बनते होने से तादृशसामान्य - विशेषात्मक हेतु ही अनेकांतात्मक साध्य का गमक मानना चाहिए। शंका - जो रुप रुपान्तर से व्यावृत्त होता है, वही रुप किस तरह से अनुवृत्त = साधारण प्रत्यय में कारण बनता है अर्थात् जो पदार्थ विशेषात्मक है, दूसरो से व्यावृत्त होता है, वह अनुवृत्त = साधारणप्रत्यय में किस तरह से कारण बन सकता है ? इसी तरह से जो साधारण सामान्यरुप बनकर अनुगतप्रत्यय में कारण होता है, वह किस तरह से व्यावृत्तप्रत्यय में कारण बन सकता है ? समाधान : ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि अनुवृत्त = अनुगताकार तथा व्यावृत्ताकाररुप में प्रत्यक्ष से प्रतीत होते वस्तु के रुप में विरोध की असिद्धि है। जैसे कि, एक ही वस्तु में प्रतीत होते सामान्य और विशेष आकारो, चित्रज्ञान तथा चित्रपटका एकचित्र रुप । (कहने का मतलब यह है कि, जैसे सामान्यविशेष पृथ्वीत्व आदि अपर सामान्य जलादि से व्यावर्तक होने के कारण विशेषरुप होने पर भी पृथ्वी व्यक्तियों में अनुगताकार प्रत्यय में कारण होने से सामान्यरुप भी है। अथवा जिस प्रकार से चित्रज्ञान एक होने पर भी अनेक नील-पितादि आकारो को धारण करता है, अथवा जिस अनुसार से एक ही रंगबिरंगी चित्रपट में अनेक नील-पीत रंग रह जाते है, उसी ही तरह से एक ही वस्तु सामान्य और विशेष दो आकार को धारण कर सकती है। जब एक ही वस्तु का अनुगताकार और व्यावृत्ताकारप्रत्यय में कारण होना प्रत्यक्ष सिद्ध है, तब उसमें विरोध किस तरह से हो सकता है ? विरोध तो उसमें होता है, कि जिसकी एक साथ उपलब्धि न हो सकती हो।) अच्छा, आप एकांतवादि बताइये कि आपने उपन्यास किये हुए हेतु का साध्य मात्र सामान्यरुप मानते हो ? या मात्र विशेषरुप मानते हो? या परस्परनिरपेक्ष उभयरुप मानते हो ? या अनुभयरुप मानते हो? "हेतु का साध्य मात्र सामान्यरुप है" यह उत्तर तो असंभवित है। तथा वैसी वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व का भी असंभव है। अर्थात् केवल सामान्यपदार्थ तो असत् है। वह कोई भी अर्थक्रिया कर सकता नहीं है। "हेतु का साध्य मात्र विशेषरुप है" - यह उत्तर भी अयोग्य है। क्योंकि विशेष दूसरी व्यक्तियों में अनुगत नहीं होने के कारण, उसका संबंध अगृहीत रहने के कारण, वह) साध्य बनने के लिए समर्थ नहीं है। हेतु का साध्य परस्परनिरपेक्ष उभयरुप तो नहीं है। क्योंकि मात्र सामान्यरुप तथा मात्र विशेषरुप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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