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________________ २९६/९१९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन मानने में जो दोष आते थे वे सभी दोष यहाँ आयेंगे। हेतु का साध्य अनुभयरुप तो हो सकता नहीं है। क्योंकि अनुभयरुप तो कोई पदार्थ होता ही नहीं है। इसलिए अनुभयपक्ष में साध्य असत् बन जायेगा । असत् साध्य हेतु को व्यापक न होने के कारण साध्यरुप बन सकता नहीं है। अर्थात् असत् साध्य में हेतु का अव्यापकत्व होने के कारण साध्यत्व का अयोग है। (परस्पर व्यवच्छेदात्मक सामान्य और विशेष दोनो का युगपत् निषेध किया नहीं जा सकता है। इस तरह से जब अनुभय पदार्थ की सत्ता ही नहीं है, तब वह हेतु का व्यापक बनकर साध्य बन सकता नहीं है।) इसलिए (जिसकी सिद्धि करनी है, वैसे) विवादास्पद सामान्य-विशेषोभयात्मक साध्यधर्म को साध्यधर्मी में सिद्ध करने के लिए परस्पर अनुविद्ध अन्वय -- व्यतिरेकद्वयात्मक हेतु का प्रदर्शन करने में लेशमात्र भी एकांतपक्ष में हेतु का प्रदर्शन करने में लेशमात्र भी एकांतपक्ष में कहे हुए दोषो का अवकाश संभवित नहीं है। इसलिए हेतु का अनेकांतात्मक स्वरुप ही मानना चाहिए । अन्यथा सकल अनुमानो में साध्य-साधनो का उक्त न्याय से उच्छेद हो जायेगा । अर्थात् हेतु का अनेकांतात्मक स्वरुप स्वीकार नहि करोंगे तो समस्त साध्य-साधनो का लोप होके अनुमानमात्र का उच्छेद हो जायेगा । इसलिए हे एकांतवादियो ! अपने पक्ष का अभिमान त्याग करके चंचल आंखो को बंध करके तथा ज्ञानरुपी चक्षु को खोलकर तटस्थवृत्ति से युक्ति अनुसार विचार करके तत्त्वजिज्ञासापूर्वक आप लोग अनेकांत का विचार करें । (और उसके योग से) समस्त दूषणो से रहित प्रमाणैकमूल युक्तियुक्त = प्रमाणसिद्ध युक्तियों से युक्त अनेकांततत्त्व को प्राप्त करो। (अर्थात् मध्यस्थ बुद्धि से आप विचार करोंगे तो निश्चित अनेकांततत्त्व को प्राप्त करोंगे।) इस अनुसार से “परहेतुतमोभास्कर" नाम का वादस्थल पूर्ण होता है। उपरोक्त विवेचन से अनेकांततत्त्व सर्वदर्शनसंमत सिद्ध हो जाता है। ॥५७।। अथ जैनमतं संक्षेपयन्नाह - अब जैनमत का उपसंहार करते हुए कहते है कि... (मू. श्लो.) जैनदर्शनसंक्षेप इत्येष गदितोऽनघः । पूर्वापरपराघातो यत्र क्वापि न विद्यते ।।५८ ।। __ श्लोकार्थ : इस अनुसार से सर्वथा निर्दोष जैनदर्शन का संक्षेप से कथन किया है। उस जैनदर्शन की मान्यताओ में कहीं भी पूर्वापर विरोध आता नहीं है। व्याख्या-जैनदर्शनस्य संक्षेपो विस्तरस्यागाधत्वेन वक्तुमशक्यत्वादुपयोगसारः समास इत्यमुनोक्तप्रकारेणैवप्रत्यक्षो गदितो-अभिहितोऽनघो-निर्दूषणः सर्ववक्तव्यस्य सर्वज्ञमूलत्वे दोषकालुष्यानवकाशात् । यत्रजैनदर्शने क्वापि क्वचिदपि जीवाजीवादिरूपविचारणाविषयसूक्ष्ममतिचर्चायामपि पूर्वापरयोः-पूर्वपश्चादभिहितयोः पराघातः-परस्परव्याहतत्वं न विद्यते, अयं भावः-यथा परदर्शनसंबन्धिषु मूलशास्त्रेष्वपि किं पुनः पाश्चात्यविप्रलम्भक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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