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________________ २९४/९१७ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन या साध्य-साधन दोनो को जाननेवाले कोई अन्वयी चैतन्य का सद्भाव न होने से उसके संबंध को जानना बिलकुल असंभवित है।) ___ बौद्ध : कार्य-कारण या साध्य-साधन के अनुभव के अनंतर होनेवाले स्मरण के द्वारा कार्यकारणभाव तथा अविनाभाव आदि संबंधो का ज्ञान अच्छी तरह से होता ही है। जैन : ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि अनुभूत में ही स्मरण का प्रादुर्भाव होता है। अर्थात् स्मरण अनुभव के अनुसार ही होता है। जो पदार्थ का अनुभव हो उसका ही स्मरण होता है। कार्य-कारणभाव या अविनाभाव आदि संबंधो का अनुभव ही किसीके द्वारा हुआ नहीं है तो फिर स्मरण कहां से हो सकता है? संबंध तो उभय में रहता है। आपकी कोई भी क्षणिक ज्ञानक्षण पूर्वोत्तरकालभावि दो भावपदार्थो को जानती ही नहीं है, तो वह किस तरह से उन दोनो में रहनेवाले संबंध का निश्चय कर सकती है? (कार्यकारणभाव तो क्रमभावि कारण और कार्य में रहता है। आपकी कोई एक ज्ञानक्षण के द्वारा क्रमभावि कार्य और कारण को ग्रहण करना असंभवित है। इसलिए उससे उसके संबंध का ग्रहण भी होता नहीं है।) इसलिए एकांतपक्ष में परवादियों के द्वारा कहे गये सभी हेतु संबंध का अभाव होने के कारण तथा निश्चय का अभाव होने से अनैकान्तिक ही है। ___ एवं च केवलस्य सामान्यस्य विशेषस्य च द्वयोर्वा परस्परविविक्तयोस्तयोर्हेतुत्वाघटनादनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययनिबन्धनपरस्परसंवलितसामान्यविशेषात्मनो हेतोरनेकान्तात्मनि साध्ये गमकत्वमभ्युपगन्तव्यम् । न च यदेव रूपं रूपान्तराद्व्यावर्तते तदेव कथमनुवृत्तिमासादयति, यञ्चानुवर्तते तत्कथं व्यावृत्तिमाश्रयति इति वक्तव्यं, अनुवृत्तव्यावृत्तरूपतयाध्यक्षतः प्रतीयमाने वस्तुरूपे विरोधासिद्धेः, सामान्यविशेषवञ्चित्रज्ञानवञ्चित्रपटस्यैकचित्ररूपवद्वा । किंच एकान्तवाद्युपन्यस्तहेतोः साध्यं किं सामान्यमाहोस्विद्विशेष उतोभयं परस्परविविक्तमुतस्विदनुभयमिति विकल्पाः । न तावत्सामान्यं, केवलस्य तस्यासंभवादर्थक्रियाकारित्ववैकल्याञ्च । नापि विशेषः, तस्याननुयायित्वेन साधयितुमशक्यत्वात् । नाप्युभयं, उभयदोषानतिवृत्तेः । नाप्यनुभयं, तस्यासतो हेत्वव्यापकत्वेन साध्यत्वायोगात् । तस्माद्विवादास्पदीभूतसामान्यविशेषोभयात्मकसाध्यधर्मस्य साध्यधर्मिणि साधनायान्योन्यानुविद्धान्वयव्यतिरेकस्वभावद्वयात्मैकहेतोः प्रदर्शने लेशतोऽपि नैकान्तपक्षोक्तदोषावकाशः संभवी, अतोऽनेकान्तात्मकं हेतुस्वरूपं चावश्यमङ्गीकर्तव्यं, अन्यथा सकलानुमानेषु साध्यसाधनानामुक्तन्यायत उच्छेद एव भवेत् । तस्माद्भो एकान्तवादिनो ! निजपक्षाभिमानत्यागेनाविषादिनोऽक्षिणी निमील्य बुद्धिदृशमुन्मील्य मध्यस्थवृत्त्या युक्त्यानुसारैकप्रवृत्त्या तत्तत्त्वं जिज्ञासन्तो भवन्तोऽनेकान्तं विचारयन्त, प्रमाणैकमूलसकलयुक्तियुक्तं प्रागुक्तनिखिलदोषविप्रमुक्तम् तत्तत्त्वं चाधिगच्छन्तु । इति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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