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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन २९३/९१६ है। क्योंकि अनेक कार्यो को उत्पन्न करने के लिए अनेक स्वभावो की आवश्यकता है। उस अनेकस्वभावता का नित्य पदार्थ में सर्वथा अभाव है।) सर्वथा अनित्यपदार्थ में भी अपने सद्भाव या असद्भाव में अर्थक्रिया होती नहीं है। यदि वह अनित्य पदार्थ अपने सद्भाव में ही अपनी अर्थक्रिया को उत्पन्न करता है, तो समवायवर्तिनी = समान समयवालो में व्यापार का अभाव है = कार्यकारणभाव का अभाव है। यदि एक समय रहनेवालो में भी व्यापार = कार्यकारणभाव हो जाये, तो स्व-स्व कारण काल में ही उत्तरोत्तरक्षणो में उत्पन्न होनेवाले कार्य एक क्षण में ही हो जाने की आपत्ति आयेगी। अर्थात् उत्तरोत्तरकार्य पूर्व-पूर्वक्षण में हो जायेगा। (जैसे कि नौंवीक्षण दसवींक्षण को अपने सद्भाव में अर्थात् नौंवीक्षण में ही उत्पन्न कर देगी। उस तरह से आठवींक्षण नौंवीक्षण को अपने सद्भाव में अर्थात् आठवींक्षण में नौंवी क्षण को, सातवींक्षण में आठवींक्षण को, छट्ठीक्षण में सातवींक्षण को, छठ्ठीक्षण को पांचवीक्षण में, पांचवीक्षण को चौथीक्षण में, चौथीक्षण को तीसरीक्षण में, तीसरीक्षण को द्वितीयक्षण में, वैसे ही प्रथमक्षण में द्वितीय क्षण को उत्पन्न कर देगी। अर्थात् प्रथमक्षण में ही सभी कार्य हो जायेंगे। (और दूसरीक्षण में नाश होने से संसार शून्य बन जायेगा।) तथा (यदि सहभावियो में कार्यकारणभाव हो तो) समस्त सहभाविपदार्थो में परस्पर कार्य-कारणभाव आ जायेगा।) ___ (कोई भी कारण असत् होके कार्य को उत्पन्न कर सकता ही नहीं है। क्योंकि) असत्पदार्थ सभी शक्ति से विफल होने से कारण कार्य करने के लिए समर्थ बनता नहीं है। यदि असत्पदार्थ भी कार्य करने के लिए समर्थ बन जाता हो तो असत् ऐसा खरगोस का सिंग भी कार्य करने के लिए समर्थ बन जायेगा और इसलिए खरगोस का सिंग, अर्थक्रियाकारि बनने से सत् बन जायेगा। इस अनुसार से साध्य-साधन आदि के संबंध की एकांतमत में अनुपपत्ति होने से हेतु के पक्षधर्मत्वादि भी असंगत ही बन जाते है। इसलिए साध्य और साधन आदि का प्रतिबंध संबंध सिद्ध करना कठिन है। उस अनुसार से एकांतवादियों को (एकांतवाद में) प्रतिबंध का ग्रहण भी संगत होता नहीं है। क्योंकि अविचलितस्वरुपवाले (कूटस्थ नित्य) आत्मा में ज्ञान के पर्याय के परिवर्तन का अभाव है तथा प्रतिक्षणध्वंस होने से क्षणिक में (क्षणिक आत्मा में)) भी कार्य-कारण, साध्य-साधन आदि उभय के ग्रहण में अनुवृत्त (अन्वयी) एक चैतन्य का अभाव है। (कहने का मतलब यह है कि, एकांतनित्यवादि आत्मा को सर्वथा अपरिवर्तन शील नित्य मानते है। वह सर्वथा अविचलित स्वभाववाला है। इसलिए उसमें ज्ञान के पर्याय भी बदलते नहीं है। ऐसा कूटस्थनित्य आत्मा है। उसमें साध्य और साधन के संबंध को ग्रहण करना ही कठिन है। जो आत्मा के ज्ञान में साध्य-साधन और उसका अविनाभाव क्रमशः प्रतिभासित होता हो,वह आत्मा संबंध-को ग्रहण कर सकता है। जो हमेशां एक स्वभाववाला है, उसमें तादृशक्रमिक परिणमन हो सकता नहीं है। बौद्ध आत्मा को क्षणिकज्ञानप्रवाहरुप मानते है। उसका वह क्षणिकआत्मा भी साध्यसाधन के संबंध को ग्रहण नहीं कर सकता। क्योंकि जो ज्ञानक्षण साधन को जानती है, वह ज्ञानक्षण साध्य को जानती नहीं है। तथा साध्य को जाननेवाली ज्ञानक्षण साधन को जानती नहीं है। इस तरह से कार्यकारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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