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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन में संयोगादि संबंधो का अभाव पहले ही सिद्ध कर दिया है तब उसमें विशेषण - विशेष्यभाव की सिद्धि करना सर्वथा (बिलकुल) अनुचित है। २९२ / ९१५ साध्य और साधन में तादात्म्यसंबंध भी होता नहीं है। क्योंकि साध्य असिद्ध होता है और साधन सिद्ध होता है और इसलिए उस अपेक्षा से साध्य और साधन में भेद माना गया है तथा जिसमें भेद माना गया है उसमें तादात्म्य = अभेद मानोंगे तो साधन या साध्य में से एक ही रहेगा। दोनो नहीं रह सकेंगे । तादात्म्य संबंध में दोनो बच नहीं सकते। उन दोनो के बीच कथंचित् तादात्म्य मानोंगे तो जैनमत का स्वीकार करना पडेगा । तदुत्पत्तिस्तु कार्यकारणभावे संभविनी कार्यकारणभावश्चार्थक्रियासिद्धौ सिध्येत् । अर्थक्रिया च नित्यस्य क्रमाक्रमाभ्यां सहकारिषु सत्स्वसत्सु च जनकाजनकस्वभावद्वयानभ्युपगमेन नोपपद्यते । अनित्यस्य तु सतोऽसतो वा सा न घटते, सतः समवायवर्तिनि व्यापारायोगात्, व्यापारे वा स्वस्वकारणकाल एव जातानामुत्तरोत्तरसर्वक्षणानामेकक्षणवतित्वप्रसङ्गात्, सकलभावानां मिथः कार्यकारणभावप्रसक्तेश्च, असतश्च सकलशक्तिविकलत्वेन कार्यकारणासंभवात्, अन्यथा शशविषाणादेरपि तत्प्रसङ्गात् । तदित्थं साध्यादीनां संबन्धानुपपत्तेरेकान्तमते पक्षधर्मत्वादि हेतुलक्षणमसंगतमेव स्यात्, तथा च प्रतिबन्धो दुरुपपाद एव । तथैकान्तवादिनां प्रतिबन्धग्रहणमपि न जाघटीति, अविचलितस्वरूपे आत्मनि ज्ञानपौर्वापर्याभावात्, प्रतिक्षणध्वंसिन्यपि कार्यकारणाद्युभयग्रहणानुवृत्त्यैकचैतन्याभावात् 1 न च कार्याद्यनुभवानन्तरभाविना स्मरणेन कार्यकारणभावादिः प्रतिबन्धोऽनुसंधीयत इति वक्तव्यं, अनुभूत एव स्मरणप्रादुर्भावात् । न च प्रतिबन्धः केनचिदनुभूतः, तस्योभयनिष्ठत्वात् । उभयस्य पूर्वापरकालभाविन एकेनाग्रहणादिति न प्रतिबन्धनिश्चयोऽपि । तदेवमेकान्तपक्षे परैरुच्चार्यमाणः सर्वोऽपि हेतुः प्रतिबन्धस्याभावादनिश्चयाञ्च्चानैकान्तिक एव भवेत् ३ । व्याख्या का भावानुवाद : साध्य और साधन में कार्य कारणभाव होने से ही तदुत्पत्ति संबंध की विचारणा की जा सकती है और कार्य-कारणभाव अर्थक्रियावाले पदार्थो में होता है । अर्थात् पदार्थो में अर्थक्रिया सिद्ध हो, तो ही कार्यकारणभाव सिद्ध होता है और उसके बाद ही तदुत्पत्तिसंबंध की विचारणा की जा सकती है। नित्य पदार्थ में क्रम से या युगपत् सहकारियों की मदद होने से या सहकारियों की मदद नहि होने से अर्थक्रिया की जनकता या अजनकता मानी हुई न होने से (नित्य पदार्थ में) अर्थक्रिया संगत होती नहीं है। (कहने का मतलब यह है कि, नित्य पदार्थ हंमेशा एक स्वभाववाला होने के कारण उसमें क्रम से तथा युगपत् सहकारियों की मदद से या उसकी मदद के बिना किसी भी तरह से कोई भी अर्थक्रिया कर सकता नहीं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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