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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन के साथ संबंध नहीं कर सकता है, उसमें समवाय नियामक है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि समवाय एक और सर्वत्र होने से उसकी सभी स्थान पे तुल्यदृष्टि होती है । " साध्य आदि से संयोग अभिन्न है" यह द्वितीयपक्ष कहोंगे तो साध्य - साधन की ही सत्ता रहेगी। संयोग की सत्ता रहेगी नहीं। क्योंकि अभेद में एक की ही वास्तविक सत्ता बनी रहती है । "साध्य आदि से संयोग कथंचित् भिन्न है" यह पक्ष मानने में तो (आपको हमारे अनेकांतवाद का ही आश्रय करना होता है। - २९९ / ९१४ - साध्य और साधन में परस्परविरोध भी कहा नहीं जा सकता। क्योंकि सर्वथा एकांत मत में विरोध को सिद्ध करना संभवित नहीं है । विरोध दो प्रकार के होते है - एक सहानवस्थानरुप तथा दूसरा परस्परपरिहाररुप। उसमें आप बताइये कि, विरोध दो में से कौन से एक स्वरुपवाला है ? अर्थात् साध्य और साधन में सहानवस्थानरुप विरोध होगा या परस्परपरिहाररुप विरोध होगा ? उसमें सहानवस्थानरुप विरोध भी क्यों मान जाता है ? क्या वह कभी भी एक स्थान पे नहि रहता होने के कारण या कुछ काल साथ रहकर पिछे से साथ नहि रहता होने के कारण है ? यदि कभी भी एक स्थान में नहि रहने के कारण सहानवस्थानविरोध है, तो सांप और नेवले आदि में विरोध नहीं माना जा सकेगा । क्योंकि वह कभी कभी तो एकसाथ रहते ही है । यदि उनमें सहानवस्थानविरोध है, तो तीन लोक में सांपो का अभाव ही हो जायेगा । यदि कुछ काल साथ रहकर बाद में साथ नहि रहते होने के कारण सहानवस्थानविरोध है तो स्त्री पुरुष में भी विरोध आयेगा। क्योंकि वे भी कुछ काल एकट्ठा रहकर अलग पड जाते है । तदुपरांत यदि कुछ थोडे समय साथ रहकर अलग पड जाते होने से उसमें सहानवस्थान विरोध होता है, तो वडवानल समुद्र की अग्नि और समुद्र का पानी, बिजली और बादलो में रहनेवाला पानी, वे सभी बहोत लंबे समय तक एकसाथ रहते है, तो उसमें विरोध नहीं होना चाहिए। (फिर भी विरोध तो माना जाता ही है ।) Jain Education International = परस्परपरिहारस्थितिरुप विरोध सर्वपदार्थो में अविशेषतया = सामान्यरुप से हुआ ही करता है । प्रत्येक पदार्थ दूसरे पदार्थ से अपनी स्वतंत्र भिन्नस्थिति रखता ही है । इसलिए किस तरह से सर्वसाधारण विरोध को प्रतिनियतस्थानो में ही जोडा जा सके ? साध्य और साधन में विशेषण - विशेष्यभाव भी संगत होता नहीं है । क्योंकि उस साध्य और साधन में संयोगादि का असंभव होने से विशेषण - विशेष्यभाव का अभाव है । साध्य और साधन में संयोगादि का संभव हमने पहले ही निषेध कर दिया है । कहने का मतलब यह है कि, साध्य और साधन में विशेषणविशेष्यभाव भी माना नहि जा सकता। क्योंकि विशेषण- विशेष्यभाव तो उन पदार्थो में होता है कि जिसमें पहले से ही परस्पर कोई संयोग या समवाय आदि संबंध रहता है । परन्तु जब साध्य और साधन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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