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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
अश्वत्वसामान्य सर्वगत है । "अश्व में ही अश्वत्व को प्रकट करने का सामार्थ्य है। गाय इत्यादि में वह सामर्थ्य नहीं है" ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि (आपको जवाब देना चाहिए कि,) अश्वो में ही अश्वत्व को प्रकट करने की ऐसी कौन सी विशेषता है कि जो गाय आदि में देखने मिलती नहीं है ? ___ "साधारणरुपत्वेन अश्वो में वैसा सामर्थ्य है अर्थात् अश्वो में परस्पर समानता है । इसलिए वही अश्वत्व को प्रकट कर सकता है । नहि कि अत्यंतविलक्षण गाय आदि ।" ऐसा आपका उत्तर भी उचित नहीं है। क्योंकि यदि स्वतः ही सर्वव्यक्ति (घोडे) समान-सदृश है, परस्पर अत्यंत समान है, तो उस सदृशता से ही "अश्व, अश्व" ऐसा अनुगताकार ज्ञान उत्पन्न होगा। तो फिर वह अनुगताकार ज्ञान के लिए भिन्न एक अश्वत्व नाम के सामान्य की कल्पना करना निरर्थक है। यदि स्वतः व्यक्ति असाधारण = विलक्षण है । अर्थात् सभी अश्व स्वभाव से ही विलक्षण है एक दूसरे से समान नहीं है, दूसरे साधारण के योग से भी उसमें समानता नहीं आयेगी। अर्थात् अश्व स्वभाव से ही परस्पर विलक्षण है तो सामान्य के योग से भी उसमें "अश्व, अश्व" यह साधारण = सदृश प्रत्यय को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं आ सकेगी। क्योंकि वे अश्व स्वत:असाधारण है। (तथा जो स्वतः विलक्षण है, उसमें दूसरा पदार्थ सदृशता किस तरह से ला सकता है ?) इस अनुसार से व्यक्तियों से सर्वथाभिन्न सामान्य का अभाव होने से सामान्य की सिद्धि होती नहीं है और ऐसे असिद्ध सामान्य से साध्य की सिद्धि किस तरह से हो सकेगी? ___ "सामान्य हेतु व्यक्ति से अभिन्न है" - यह पक्ष भी अयुक्त है। क्योंकि जो व्यक्ति से अभिन्न है, वह व्यक्तिस्वरुप बन जाता है तथा जैसे एक व्यक्ति का दूसरी व्यक्ति में अन्वय देखने को मिलता नहीं है, वैसे सामान्य का भी दूसरी व्यक्ति में अन्वय मिलेगा नहीं तथा दूसरी व्यक्ति में अनुगत ही न हो तो उसकी सामान्यरुपता संगत होती नहीं है। अर्थात् वह यदि दूसरी व्यक्ति में अनुगत ही न हो तो वह सामान्य ही किस तरह से बन सकता है ? सामान्य तो अनेकानुगत होता है, व्यक्ति से अभिन्नत्व और सामान्यरुपता (वे दो) परस्परविरोधी है। अर्थात् व्यक्ति से अभिन्न भी होना और सामान्य भी होना वह तो परस्पर विरोधी बात है। ___ "सामान्य हेतु व्यक्तियों से भिन्नाभिन्न है" - यह पक्ष भी उचित नहीं है। क्योंकि उसमें विरोध है। एक सामान्य भिन्न भी हो और अभिन्न भी हो, तो सचमुच विरोधी है।
शंका : सामान्य किसी अंश से व्यक्ति से भिन्न है तो किसी अंश से अभिन्न है। इस तरह से हम सामान्य को भिन्नाभिन्न मानते है। समाधान : आपकी यह बात भी युक्त नहीं है। क्योंकि सामान्य निरंश है। उसके कोई अंश ही नहीं है कि जिससे आपकी बात मानी जाये। इसलिए हेतु सर्वथा सामान्यरुप तो सिद्ध हो सकता नहीं है।
हेतु को विशेषरुप तो कहा नहीं जा सकता। क्योंकि, विशेष असाधारण होने के कारण उसमें गमकत्व नहि आयेगा। अर्थात् उसमें परस्पर अन्वय नहीं मिलेगा। क्योंकि, साधारण में = सामान्य में ही अन्वय की संगति होती है। अर्थात् अन्वय तो साधारण = सदृश व्यक्तियों में ही देखने को मिलता है। इसलिए वह
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