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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५७, जैनदर्शन - २८५/९०८ के साथ संबंध न हो, तब तक ज्ञान उत्पन्न नहीं करता, तो पीछे से भी वह किस तरह से ज्ञान को उत्पन्न कर सकेगा ? क्योंकि वह सामान्य अविचलित, हंमेशा एक स्थायी स्वरुपवाला है तथा दूसरे किसी पदार्थों के द्वारा उसमें कोई नया अतिशय भी उत्पन्न हो सकता नहीं है । यदि सामान्य का स्वरुप विचलित परिवर्तनशील हो, तो और सहकारि किसी पदार्थ के द्वारा उसमें अतिशय उत्पन्न होता हो तो अर्थात् सामान्य में विचलितत्व और आधेयातिशयत्व मानोंगे, तब तो वह क्षणिक बन जाने की आपत्ति आयेगी । = दूसरा, वह सामान्य (सामान्यवान् =) व्यक्तियों से भिन्न है या अभिन्न है या भिन्नाभिन्न है ? वह सामान्य व्यक्तियों से भिन्न तो नहीं है । क्योंकि व्यक्तियों से पृथक् उपलब्ध होता नहीं है । नैयायिक : समवाय से सामान्य का व्यक्तियों के साथ संबंध हुआ होने से सामान्य व्यक्तियों से भिन्न उपलब्ध होता नहीं है, परन्तु भिन्न तो है ही । अर्थात् यद्यपि सामान्य व्यक्तियो से भिन्न है, परंतु उसका व्यक्तियों के साथ नित्यसमवाय रहने के कारण व्यक्तियों से स्वतंत्ररुप में भिन्न उपलब्ध होता नहीं है । - जैन : यहाँ समवाय “इहेदम्" बुद्धि का कारण है तथा "इहेदम्" बुद्धि (सामान्य तथा विशेष के) भेदज्ञान के बिना संभव नहीं है। कहने का मतलब यह है कि, समवाय " इहेदम्" "इसमें यह है" यह बुद्ध का कारण बनता है। जब तक सामान्य और विशेष का भिन्न = स्वतंत्ररुप से ज्ञान न हो, तब तक -"इहेदम्" इसमें यह है, । यह बुद्धि उत्पन्न हो नहीं सकती। "इह" = विशेष में "इदम्” सामान्य है, यह बुद्धि स्पष्टतया भेद का ही ज्ञान कराती है । तदुपरांत, आप बतायें की "इहेदम्" बुद्धि से अश्वत्व आदि सामान्य की वृत्ति अपने आश्रय ऐसे अश्व आदि में चाही जाती है या सर्वगत = संसार में सर्वत्र चाही जाती है ? अर्थात् आप लोग अश्वत्व आदि सामान्य की वृत्ति किस में सिद्ध करोंगे ? यदि “सामान्य की वृत्ति अपने आश्रय ऐसे अश्वादि में है" ऐसा कहोंगे, तो कर्कादि व्यक्ति = सफेद आदि घोडे व्यक्तियों से शून्य देश में पहले ही उत्पन्न हुई अश्व व्यक्ति में "अश्वत्व" सामान्य का योग नहि होगा । क्योंकि, व्यक्तिशून्यदेश में सामान्य रहता नहीं है तथा वह सामान्य दूसरे व्यक्तियों से आता नहीं है। कहने का मतलब यह है कि, यदि अश्वत्व सामान्य कर्क = सफेद घोडे, पीले घोडे आदि अपनी व्यक्तियों में ही रहता है, तो जिस समय में अश्वशाला में कोई नया घोडा उत्पन्न होता है, उस समय पर उसमें अश्वत्वसामान्य का संबंध नहीं होना चाहिए। क्योंकि उस अश्वशाला के शून्य देश में तो अश्वत्व रहा नहीं था कि जिससे वर्हां के वर्हां नये उत्पन्न हुए अश्व व्यक्ति में आ जाये । सामान्य ही उसका नाम कि, जो अपनी व्यक्तिके आश्रय में रहे। सामान्य निराश्रय तो रहता ही नहीं है। वैसे ही सामान्य निष्क्रिय है। इसलिए अश्वत्वसामान्य पूर्वोत्पन्न घोडे में से निकलकर नवजात अश्व में आ सकता नहीं है । सारांश में तात्पर्य यह है कि, नये उत्पन्न हुए अश्व में अश्वत्व का संबंध हो सकेगा ही नहीं । यदि अश्वत्वादिसामान्य को समस्त जगत में व्याप्त मानोंगे, तब तो अश्वत्वादिसामान्य का जैसे अश्वादि में प्रतिभास होता है, वैसे शाबलेय काबर गाय इत्यादि में भी उसका प्रतिभास होगा । क्योंकि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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