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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन २८३/९०६ तथा अतीतादिकालवर्ती व्यक्तियों में भी दिखाई देता है। इसलिए नियतदेश में उसका प्रत्यक्ष होता होने से दूरदेश और अतीतादिकालवर्ती व्यक्तियो में रहनेवाले स्वरुप का भी प्रत्यक्ष हो ही जाता है। समाधान : ऐसा मत कहना । क्योंकि (यदि सामान्य को) नियतदेशवर्ती व्यक्तियों में रहे हुए स्वरुप से अव्यतिरेक = अभिन्न मानोंगे तो, उसकी भी नियतदेशता ही हो जायेगी । अर्थात् यदि सामान्य नियतदेशवर्ती व्यक्तियो में रहे हुए सामान्य से सर्वथा अभिन्न है, तो फिर वह भी नियतदेशवाला ही हो जायेगा। ऐसी अवस्था में वह सर्वव्यापी नहीं रह सकेगा। इसलिए व्यापी सामान्यरुप हेतु प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है। सामान्यरुप हेतु को अनुमान से सिद्ध करने का प्रयत्न करने में भी अनवस्थादोष नाम की राक्षसी का निवारण नहीं किया जा सकता । अर्थात् अनवस्थादोष आता है। क्योंकि सामान्य को सिद्ध करने के लिए प्रवर्तमान अनुमान लिंगज्ञानपूर्वक ही प्रवर्तित होता है और लिंग तो सामान्यरुप ही है। परन्तु विशेषरुप होता नहीं है। क्योंकि (विशेष का दूसरी व्यक्तियो में) अनुगम होता नहीं है। (इसलिए लिंग को विशेषरुप में माना नहि जा सकेगा। अब वह लिंग सामान्यरुप है उसके बारे में सोचे!) वह सामान्यरुपलिंग ज्ञात बनके लिंग बनेगा या अज्ञात रहकर ही लिंग बनेगा? ___ "सामान्यरुपलिंग अज्ञात रहकर ही लिंग बनता है।" (तथा वह लिंग साध्य का गमक बनता है।) ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अनिष्टता और अतिव्याप्ति का प्रसंग आयेगा । (जिस व्यक्ति ने धूमादिलिंगो को जाने नहीं है, उसको भी अग्नि आदि का अनुमान होना चाहिए - यह अनिष्ट आयेगा तथा किसी भी व्यक्ति को किसी भी लिंग से किसी भी साध्य का ज्ञान हो जाना चाहिए-यह अतिव्याप्ति आयेगी) "सामान्यरुपलिंग ज्ञात बनकर ही लिंग बनता है और वह लिंग साध्य का गमक होता है।" इस पक्ष में हमारा प्रश्न है कि, वह सामान्यलिंग प्रत्यक्ष से ज्ञात है या अनुमान से ज्ञात है ? अर्थात् वह सामान्यरुपलिंग का ज्ञान प्रत्यक्ष से होता है या अनुमान से होता है ? "सामान्यरुपलिंग का ज्ञान प्रत्यक्ष से होता है ।" ऐसा नहीं कहा जा सकता । क्योंकि प्रत्यक्ष संनिकृष्टपदार्थग्राही है। अर्थात् प्रत्यक्ष इन्द्रियो के साथ संबद्ध स्थूलपदार्थो में ही प्रवृत्ति कर सकता है। इसलिए उससे सर्वव्यापी सामान्यरुपलिंग का ज्ञान होना संभव नहीं है। "सामान्यरुपलिंग का ज्ञान अनुमान से होता है-" ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उसमें भी अनुमानान्तर से लिंग ग्रहण इत्यादि विचारणा चलती ही रहेगी । कहने का मतलब यह है कि, अनुमान से भी सामान्यरुपलिंग का ज्ञान होना संभव नहीं है। क्योंकि वह अनुमान भी लिंगग्रहणपूर्वक होगा। लिंग विशेषरुप न होने के कारण सामान्यरुप होगा। वह सामान्यरुपलिंग का ज्ञान प्रत्यक्ष से होगा या अनुमान से? इस तरह से प्रश्न चलते ही रहेंगे और इसलिए हजारो युगो के बाद अनंता अनुमानो से भी एक साध्य की सिद्धि हो नहीं सकेगी। तदुपरांत, यदि प्रत्यक्ष और अनुमान से सभी व्यक्तियों के आधेयस्वरुप सामान्य का निश्चय होता है, तो, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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