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________________ २८२/ ९०५ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन वानुभयं वा । न तावत्सामान्यं हेतुः । तद्धि सकलव्यापि सकलस्वाश्रयव्यापि वा हेतुत्वेनोपादीयमानं प्रत्यक्षसिद्धं वा स्यात्तदनुमानसिद्धं वा । न तावत्प्रत्यक्षसिद्धं, प्रत्यक्ष ह्यक्षानुसारितया प्रवर्त्तते । अक्षं च नियतदेशादिनैव संनिकृष्यते । अतोऽक्षानुसारि ज्ञानं नियतदेशादावेव प्रवर्तितुमुत्सहते, न सकलकालदेशव्यापिनि । अथ नियतदेशस्वरूपाव्यतिरेकात्तन्निश्चये तस्यापि निश्चय इति चेत् ? न, नियतदेशस्वरूपाव्यतिरेके नियतदेशतैव स्यात्, न व्यापिता, तन्न व्यापिसामान्यरूपो हेतुः प्रत्यक्षसिद्धः । अनुमानसिद्धतायामनवस्थाराक्षसी दुर्निवारा । अनुमानेन हि लिङ्गग्रहणपूर्वकमेव प्रवर्त्तमानेन सामान्यं साध्यते लिङ्गं च न विशेषरूपमिष्यते, अननुगमात् । सामान्यरूपं तु लिङ्गमगवतं वानवगतं वा भवेत् ? न तावदनवगतं, अनिष्टत्वादतिप्रसङ्गाञ्च । अवगतं चेत् ? तदा तस्यावगमः प्रत्यक्षेणानुमानेन वा ? न प्रत्यक्षेण, संनिकृष्टग्राहित्वात्तस्य । नाप्यनुमानेन, तस्याप्यनुमानमन्तरेण लिङ्गग्रहणे पुनस्तदेवावर्तते । तथा चानुमानानामानन्त्याधुगसहस्रैरप्येकलिङ्गिग्रहणं न भवेत् । अपि च, अशेषव्यक्त्याधेयस्वरूपं सामान्यं प्रत्यक्षानुमानाभ्यां निश्चीयमानं स्वाधारनिश्चयमुत्पादयेत् । स्वाधारनिश्चयोऽपि निजाधारनिश्चयमिति सकलो जनः सर्वज्ञः प्रसज्यते । व्याख्या का भावानुवाद : उस अनुसार से परवादिप्रयुक्त सर्वसाधनधर्मो की = सर्वसाध्य के साधक हेतुओ की असिद्धता भी तर्क से सोचनी चाहिए । आप बतायें कि, आपका हेतु सामान्यरुप है ? या विशेषरुप है । उभयरुप ... सामान्यविशेष उभयरुप है ? या उभयरुप नहीं है ? यदि हेतु सामान्यरुप हो, तो वह सामान्यरुप हेतु सकलपदार्थव्यापि है या मात्र वह अपने आश्रय - व्यक्तियों में रहता है ? (इसका जवाब एक तरफ रखे।) आप बताये कि वह सामान्य रुप हेतु प्रत्यक्षसिद्ध है या अनुमानसिद्ध है ? अर्थात् वह सामान्यरुपहेतु प्रत्यक्ष से मालूम होता है या अनुमान से मालूम होता है ? उसमें सामान्यरुप हेतु प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है। क्योंकि, प्रत्यक्ष इन्द्रियानुसारितया प्रवर्तित होता है। अर्थात् प्रत्यक्ष इन्द्रियो के अधीन है और इन्द्रिय नियतदेशादि के साथ ही सन्निकर्ष रखती है। अर्थात् इन्द्रियो का सन्निकर्ष नियतदेश में रहे हुए स्थूलपदार्थो तक ही सीमित होता है। इसलिए इन्द्रियानुसारिज्ञान नियतदेशादि में ही प्रवर्तित करने के लिए उत्साहित करता है। अर्थात् तादृशज्ञान का विषय नियतदेश में रहे हुए स्थूलपदार्थ ही बन सकते है। परन्तु इन्द्रियानुसारिज्ञान सकल काल-देशव्यापी होता नहीं है। अर्थात् इन्द्रियानुसारिज्ञान में सकलदेश तथा त्रिकालवर्ती व्यक्तियों में रहनेवाले सामान्य को जानने की शक्ति नहीं है। शंकाकार : नियतदेश में स्वरुप के अव्यतिरेक से नियतदेश में उसका निश्चय होने पर दूरदेश तथा अतीतकाल में भी निश्चय हो जायेगा। अर्थात् जो सामान्य नियतदेशवाली व्यक्तियों में रहता है, वह तो दूरदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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