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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन व्याख्या का भावानुवाद : तथा आप लोग कान खोलकर सुन ले कि प्रत्येक जीवो को प्रसिद्ध - स्वानुभवसिद्ध तथा प्रमाण से प्रसिद्ध ऐसे भी अनेकांत की विरुद्धबुद्धिवाले आप तथा अन्य कणाद, अक्षपाद, बुद्ध आदि के शिष्यो द्वारा (अपने शास्त्रव्यवहारो की सिद्धि के लिए) प्रयोजित किये हुए सभी हेतु (अब आगे बताई जाती) विवक्षा से असिद्धता - विरुद्धता - अनेकान्तिकता को प्राप्त करते है वह जानना । अर्थात् असिद्धादि हेत्वाभास को प्राप्त करते है वह जानना । ( वह विवक्षा इस अनुसार से है ।) पहले उनको अपने हेतुओ की विरुद्धता कही जाती है, यदि एक ही हेतु के वास्तविक तीन या पांच रुप मानते हो, तो वह हेतु अनेकात्मक ही बन जायेगा । उससे अनेकान्तात्मक हेतु की ही सिद्धि हो जाती है। इसलिए आपके एकांत से विपर्यय अनेकांत की सिद्धि होने से विरुद्ध दोष आता है। क्योंकि आप लोगो ने एक हेतु को अनेकधर्मात्मक ( पंचरुप या त्रिरुप) माना है। शंका : जो पक्षधर्म का सपक्ष में सत्त्व है, वही विपक्ष से सर्वत: व्यावृत्त है । अर्थात् जो पक्षधर्म हेतु की सपक्ष में वृत्ति है, वही विपक्ष में अवृत्ति है । अर्थात् हेतु की विपक्ष व्यावृत्ति ही सपक्षसत्त्व है। इसलिए हेतु एकरुप ही है, अनेकरुप नहीं है, कि जिससे हमको अनेकांत का स्वीकार करना पडेगा ।) २८१ / ९०४ समाधान : भावरुप अन्वय और अभावरुप व्यतिरेक का सर्वथा तादात्म्य नहीं हो सकता । अर्थात् भावरुप अन्वय और अभावरुप व्यतिरेक को सर्वथा एक नहीं माना जा सकता । अथवा यदि वे दोनो वास्तविक रुप से एक है, तो सर्वहेतु या तो केवलान्वयी बन जायेंगे या तो केवलव्यतिरेकी बन जायेंगे । वे हेतु त्रिरुपी या पंचरूपी नहि रहेंगे। इसलिए (आपके मतानुसार वह त्रिरुपी या पंचरुपी न होने से) साधनाभास बनेगा और इसलिए साधनाभास हेतु भी साध्य का गमक बन जायेगा । T शंका: विपक्षासत्त्व को हम मानते ही नहीं है। परंतु साध्य के सद्भाव में हेतु का अस्तित्व तथा साध्य के असद्भाव में हेतु का नास्तित्व मानते है। (अर्थात् सपक्षसत्त्व का फलितरुप ही विपक्षासत्त्व है।) इसलिए विपक्षासत्त्व सपक्षसत्त्व से भिन्न नहीं है । समाधान : आपकी बात असत्य है । क्योंकि आपके मतानुसार विपक्षासत्त्व तात्त्विक = वास्तविकरुप न होने से हेतु में त्रिरुपता या पंचरूपता किस तरह से आ सकेगी ? अब यदि (त्रिरुपता की सिद्धि के लिए) विपक्षासत्त्व को पक्षधर्मता और सपक्षसत्त्वरुप दो धर्म - रुप से भिन्न रुप मानोंगे तो एकरुपवाला हेतु, अनेकांतरुप अनेकरुपवाला (अनायासेन) बन जायेगा और वह अनेकांतात्मक हेतु तथाभूत अनेकांतात्मक साध्य के साथ अविनाभाव रखता होने से अनेकांत वस्तु का ही साधक बनेगा । इस तरह से परवादि द्वारा उपन्यस्त सभी हेतु अपनी मान्यता के ऐकांत से विरुद्ध अनेकांत के साथ अविनाभाव रखते होने से) विरुद्ध बन जाते है । अर्थात् परवादि प्रयुक्त सभी हेतु ओ में विरुद्धता आती है। क्योंकि एकांत से विरुद्ध अनेकांत को व्याप्त है । = तथाऽसिद्धतापि सर्वसाधनधर्माणामुन्नेया, यतो हेतुः सामान्यं वा भवेद्विशेषो वा तदुभयं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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