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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन सेही हेतु में गमकता आती है । अर्थात् अन्वय की अपेक्षा रखनेवाले व्यतिरेक से ही हेतु में गमकता आती है। तथा परस्पर अननुविद्ध - निरपेक्ष अन्वय और व्यतिरेक मात्र से भी हेतु में गमकता आती नहीं है। परंतु परस्पर स्वरुप अजहद्वृत्त अन्वय-व्यतिरेक से ही हेतु में गमकता आती है। अर्थात् अन्वय और व्यतिरेक परस्पर सापेक्ष बनकर तादात्म्य रखता है, तब हेतु में गमकता आती है। अर्थात् अविनाभावी हेतु में अन्वय और व्यतिरेक परस्पर सापेक्ष होते है । तथा तादात्म्य रखते है । २८०/९०३ अन्यथा=साध्य के अभाव में, अनुपपत्ति= न होना अर्थात् साध्य के सद्भाव में ही होना तप अविनाभाव ही हेतु का स्वरुप माना जाता है । वैसा पहले प्रदर्शित किये हुए अन्वय - व्यतिरेक से विशिष्ट होता है। तथा " हेतु का यह एक ही लक्षण कहने से जैनो के अपने अनेकांत सिद्धांत की हानी होती है।" ऐसा मत कहना। क्योंकि प्रयोगनियम में ही एक लक्षणवाला हेतु कहा हुआ है। परंतु स्वभाव नियम में नहीं। अर्थात् एकलक्षणवाले हेतु का स्वीकार करने से हमको हमारे अनेकांत के सिद्धांत में कोई हानी आती नहीं है। क्योंकि हम हेतु के प्रयोग को मात्र अविनाभाव से नियमित करते है । परंतु उसके स्वरुप को नियमित करते नहीं है । यदि वस्तु का कोई एक नियत स्वभाव नियत कर दिया जाये और हेतु की परिवर्तिता तथा एकरुपता का स्वीकार न किया जाये, तो वह असत् (स्वभाववाले) खरगोस के सिंग की तरह नि:स्वभाव ही बन जायेगा । इसलिए हेतु अनुमानप्रयोग की अपेक्षा से मात्र अविनाभाव स्वरुपवाला मानते है । इसलिए किस तरह सेतु की अनेकान्तात्मकता खतम हो जायेगी ! | तथा ननु भोः भोः सकर्णाः प्रतिप्राणिप्रसिद्धप्रमाणप्रतिष्ठितानेकान्तविरुद्धबुद्धिभिर्भवद्भिरन्यैश्च कणभक्षाक्षपादबुद्धादिशिष्यकैरुपन्यस्यमानाः सर्व एव हेतवो विवक्षयासिद्धविरुद्धानैकान्तिकतां स्वीकुर्वन्तीत्यवगन्तव्यम् । तथाहि - पूर्वं तावत्तेषां विरुद्धता-भिधीयते । यदि ह्येकस्यैव हेतोस्त्रीणि पञ्च वा रूपाणि वास्तवान्यभ्युपगम्यन्ते, तदा सोऽनेकधर्मात्मकमेव वस्तु साधयतीति कथं न विपर्ययसिद्धिः, एकस्य हेतोरनेकधर्मात्मकस्याभ्युपगमात् । न च यदेव पक्षधर्मस्य सपक्ष एव सत्त्वं तदेव विपक्षात्सर्वतो व्यावृत्तत्वमिति वाच्यं, अन्वयव्यतिरेकयोर्भावाभावरूपयोः सर्वथा तादात्म्यायोगात्, तत्त्वे वा केवलान्वयी केवलव्यतिरेकी वा सर्वो हेतुः स्यात्, न तु त्रिरूपः पञ्चरूपो वा, तथा च साधनाभासोऽपि गमकः स्यात् । अथ विपक्षासत्त्वं नाभ्युपेयते किं तु साध्यसद्भावेऽस्तित्वमेव साध्याभावे नास्तित्वमभिधीयते न तु ततस्तद्भिन्नमिति चेत् ? तदसत् । एवं हि विपक्षासत्त्वस्य तात्विकस्याभावाद्धेतोस्त्रैरूप्यादि न स्यात् I अथ ततस्तदन्यद्धर्मान्तरं, तर्ह्येकरूपस्यानेकात्मकस्य हेतोस्तथाभूतसाध्याविनाभूतत्वेन निश्चितस्यानेकान्तवस्तुप्रसाधनात्कथं न परोपन्यस्तहेतूनां सर्वेषां विरुद्धता, एकान्तविरुद्धेनानेकान्तेन व्याप्तत्वात् I For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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