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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन जैन : वे बौद्ध और नैयायिक ने विपक्षासत्त्व की जिस अनुसार से व्याख्या की है, उससे तो उन्हों ने दूसरे शब्दो के द्वारा अन्यथा - अनुपपत्तिरुप अविनाभाव के निश्चय का ही स्वीकार कर लिया है और वही हेतु का लक्षण है। अर्थात् आप फिर फिर के अविनाभाव को ही हेतु के निर्दोषलक्षण के रुप में स्वीकार लिया है। २७९ / ९०२ देखो, “आकाश में चंद्र है क्योंकि जलचंद्र दिखता है । अर्थात् जल में चंद्र का प्रतिबिंब पडता है ।” तथा “कल सूर्य का उदय होगा, क्योंकि आज सूर्य का उदय हो रहा है ।” इत्यादि हेतुओ में पक्षधर्मता देखने को नहीं मिलती है । इस पक्षधर्मता रुप के अभाव में भी हेतु को सत्य तो मानते ही है । "यह मेरी माता मालूम होती है क्योंकि ऐसी प्रकार की आवाज दूसरी तरह से संगत होती नहीं है - ( अर्थात् मेरी माता न हो तो वैसी अवाज भी संगत होती नहीं है । ) " तथा "सर्व पदार्थ क्षणिक या नित्य है, क्योंकि वह सत् है" इत्यादि हेतुओ में सपक्षसत्त्व रुप न होने पर भी वे हेतु साध्य के गमक बनते दीखाई देते है। इसलिए अविनाभाव ही हेतु का एकमात्र असाधारण लक्षण मानना चाहिए। त्रैरुप्य आदि तीन लक्षणो को मानना निरर्थक है। बौद्ध-नैयायिकादि : निश्चित अन्यथा - अनुपपत्ति अर्थात् अविनाभाव का निश्चय ही हेतु का (प्रधान तथा निर्दोष) लक्षण मान भी ले, तो भी उस अविनाभाव के प्रपंच के लिए विस्तार से समजने या समजाने के लिए त्रैरुप्य और पंचरूप्य मान लिये जाते है । जैन : आप लोगो को यदि अविनाभाव का विस्तार और स्पष्टता इष्ट है, तो बौद्धो के द्वारा अबाधित विषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व और ज्ञातत्व को भी हेतु के स्वरुप कहने चाहिए - मानने चाहिए। तथा नैयायिको द्वारा भी ज्ञातत्व को हेतु का स्वरुप कहना चाहिए। इसलिए अविनाभाव की स्पष्टता को चाहते बौद्धादि षडरुप हेतु मानना चाहिए। (पक्षधर्मता, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अबाधितविषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व और ज्ञातत्व, ये छ: रुपवाला हेतु मानना चाहिए।) बौद्धादि : हेतु की विपक्ष से निश्चित व्यावृत्ति का ज्ञान होने मात्र से अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व अपनेआप फलित हो जाता है। और हेतु में ज्ञातत्व होता ही है। क्योंकि हेतु का प्रकरण होने से हेतु को ज्ञात तो होना ही पडेगा। अज्ञातपदार्थ ज्ञापक नहीं बन सकता है। इस तरह से त्रैरुप्य से ही अन्य अबाधितविषयत्व आदि चरितार्थ हो जाते होने से उसका पृथक् कथन आवश्यक नहीं है । जैन : तब तो गमक हेतु के प्रकरण में अविनाभाव के कथन से ही अन्य सभी पक्षधर्मत्वादि अपनेआप फलित हो जाते है। उसका भिन्न कथन निरर्थक है। शेष के प्रपंच की जरुरत ही नहीं है। इसलिए अविनाभावी ही हेतु साध्य का गमक होता है। (इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि...) अन्वय मात्र से हेतु साध्य का गमक बनता नहीं है। परन्तु उसमें व्यतिरेक = विपक्षव्यावृत्ति का बल अवश्य होना चाहिए । अर्थात् व्यतिरेक के बल से युक्त अन्वयविशेष ही साध्य का गमक बनता है । अन्वयमात्र नहीं । (विपक्षव्यावृत्ति और व्यतिरेक का सरल अर्थ अविनाभाव ही है। इसलिए अविनाभाव विशिष्ट अन्वय से ही हेतु साध्य का गमक बनता है।) उसी तरह से केवलव्यतिरेक से ही हेतु में गमकता नहीं आती है, परंतु अंगीकृतान्वयविशिष्टव्यतिरेक For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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