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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
(प्रतिबंध) का निश्चय ही हेतु की प्रमाणता में नियामक है। इसलिए जहाँ प्रतिबंध = अविनाभाव के निश्चायक प्रमाण का असंभव है, वहाँ हेतु साध्य का अगमक बनता है। इसलिए अन्यथा अनुपपत्ति से (अर्थात् तत्पुत्रत्व और श्यामत्व के अविनाभाव को ग्रहण करनेवाला प्रमाण मिलता न होने से, उसके अविनाभाव का निश्चय नहीं हो सकता। इसलिए अन्यथा अनुपपत्ति से) अविनाभाव का अनिश्चय ही तत्पुत्रत्वादि हेतुओ में अगमकता का कारण बनता है। अर्थात् तत्पुत्रत्वादि हेतु साध्य के अगमक बनने में कारण अविनाभाव का अनिश्चय ही है । परन्तु हेतु की त्रिरुपता का या पंचरुपता का अभाव साध्य की अगमकता में नियामक नहीं है।
(नैयायिक और बौद्ध अपने हेतु की पंचरुपता और त्रिरुपता ही हेतु की सत्यता में नियामक है, उस बात को खडी रखने के लिए दलील करते है, वह टीकाकार श्री ने “अथात्र... इति" तक के शंकाग्रंथ में रखी है।)
बौद्ध + नैयायिक : (बौद्ध कहते है कि) विपक्षासत्त्व का निश्चय नहीं है। अर्थात् तत्पुत्रत्व हेतु में विपक्षासत्त्व का निश्चय नहीं है। (यदि उसकी विपक्षव्यावृत्ति निश्चित होती तो) श्यामत्व के अभाव में तत्पुत्रत्व की अवश्य निवृत्ति हो जानी चाहिए। (परंतु "श्यामत्व के अभाव में तत्पुत्रत्व की अवश्य निवृत्ति होती ही है।" ऐसा निश्चय करनेवाला कोई प्रमाण ही नहीं है।) इस तरह से विपक्षासत्त्व का निश्चय न होने से तत्पुत्रत्व हेतु हेत्वाभास है।
नैयायिक इस अनुसार गर्जना करके कहते है कि... शाकादि-आहारपरिणाम की श्यामत्व के साथ समान व्याप्ति है, पुत्रत्व के साथ व्याप्ति नहीं है। अर्थात् गर्भाणी माता का हरी पत्तो की सब्जी का खाना इत्यादि ही गर्भ के श्यामत्व के कारण है। अर्थात् शााकदि आहार परिणाम की ही श्यामत्व के साथ समान व्याप्ति है। परंतु तत्पुत्रत्व के साथ नहीं है। इस अनुसार से तत्पुत्रत्व हेतु में शाकादि-आहारपरिणाम उपाधि होने से, वह हेतु विपक्ष से व्यावृत्त नहीं है। (उपाधिसहित हेतु व्याप्यत्वासिद्ध कहा जाता है। जो धर्म साध्य का व्यापक है तथा साधन का अव्यापक है, उसको उपाधि कहा जाता है। जैसे कि, पर्वतो धूमवान वह्नेः । अर्थात् वह धूमवाला है, क्योंकि अग्निवाला होने से यहाँ आर्टेन्धनसंयोग उपाधि है। आर्टेन्धनसंयोग साध्यभूत धूम के साथ हमेशां रहता है, फिर भी साधनभूत वह्नि के साथ हमेशा रहने का उसका नियम नहीं है। क्योंकि तपे हुए लोहे के गोले में साधनभूत अग्नि होने पर भी आर्टेन्धनसंयोग होता नहीं है। इसलिए आर्टेन्धनसंयोग उपाधि है। इसलिए साधन वह्नि व्याप्यत्वासिद्ध है। उस अनुसार से "शाकादि आहारपरिणाम" साध्यभूत श्यामत्व के साथ रहता है। परंतु साधनभूत तत्पुत्रत्व के साथ हमेशा रहे वैसा नियम नहीं है। इसलिए "शाकादि आहारपरिणाम" उपाधि है। वह उपाधि सहित का तत्पुत्रत्व हेतु ही व्याप्तत्वासिद्ध बनता है। परंतु तत्पुत्रत्व हेतु हेत्वाभास बन सकता नहीं है। तात्पर्य यह है कि केवल तत्पुत्रत्व की श्यामत्व के साथ व्याप्ति नहीं है, परंतु जब वह शाकादि आहारपरिणाम से विशिष्ट होता है तब ही उसकी श्यामत्व के साथ व्याप्ति हो सकती है।)
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