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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
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है-इस जगत में अपने आपको सकलतार्किकचूडामणि माननेवाले, हमेशा भी आग्रहपूर्वक स्वाभिमान को पोषनेवाले, गुणवान् विद्वानो के उपर मत्सर धारण करने वाले, मुग्धसमाज में अपनी बातो को कुतर्को के द्वारा लम्बी लम्बी तरह से कहनेवाले, स्पष्ट स्वानुभाव से समस्त वस्तुओ में रहे हुए अभ्रान्त - सत्यरुप अनेकांत को महसूस करते हुए परन्तु स्वयं (अपने शास्त्र की बातो की पुष्टि के लिए) युक्ति से अनेकांत को कहने वाले भी "हम अनेकांत का स्वीकार करते है" ऐसे प्रगट वचनमात्र से अनेकांत का स्वीकार नहि करते, वस्तु के यथावस्थित स्वरुप को नहीं देखते, अपने मतानुराग को ही पोषते, (में अज्ञानी हूं ऐसा सिद्ध न हो जाये इसलिए) कभी भी विद्वानो के पास से हेतु के सम्यक् स्वरुप को नहि पूछते; अपनी बुद्धि से नहि जानते, आप लोग हेतु के स्वरुप से सर्वथा अनभिज्ञ होने पर भी स्वपक्ष की सिद्धि के लिए जैसे तैसे हेतु के प्रयोग किया करते हो। __ वहाँ भी साध्य की सिद्धि में मुख्य कारण हेतु है ! इसलिए अनेकांत की सिद्धि के लिए यथावस्थित वस्तु का स्वरुप बताते हमारे द्वारा प्रथम से ही साध्य सिद्धि के प्रधान अंगरुप हेतु के स्वरुप की अर्थात् हेतु की सम्यग् अनेकांतरुपता प्रकाशित की जाती है। इसलिए सावधान बनकर स्वपक्ष का अभिमान बाजू पे रखकर, क्षणभर के लिए मध्यस्थता को धारण करके आप परवादि हमारी बात को सुनिए ।
आप बताये कि.... आपने उपन्यस्त किया हुआ हेतु क्या अन्वयी होने के कारण स्वसाध्य का साधक है या व्यतिरेकी होने के कारण स्वसाध्य का साधक है या अन्वयी - व्यतिरेकी होने के कारण स्वसाध्य का साधक है ?
"हेतु अन्वयी होने के कारण स्वसाध्य का साधक है।" यह पक्ष कहोंगे तो तत्पुत्रत्वादि हेतुएं भी साध्य के गमक बन जायेंगे। क्योंकि अन्वयमात्र का वहाँ भी सद्भाव है। कहने का मतलब यह है कि, यदि साध्य और साधन के दृष्टांत में सद्भाव रहने के कारण वह हेतु अन्वयी बनकर सत्य बन जाता हो तो साध्य का साधक बनता हो तो - "गर्भगत बालक श्याम है क्योंकि वह उसका पुत्र है" इस अनुमान में "तत्पुत्रत्व" हेतु भी सत्य बन जाना चाहिए । क्योंकि उसके चार श्याम बालको में तत्पुत्रत्व और श्यामत्व का अन्वय देखने को मिलता ही है। परंतु तत्पुत्रत्व हेतु सत्य नहीं है।)
"हेतु व्यतिरेकी होने के कारण स्वसाध्य का गमक बनता है।" यह पक्ष भी उचित नहीं है। क्योंकि तब तो "तत्पुत्रत्वादि" हेतु भी साध्य के साधक बन जायेंगे। कहने का मतलब यह है कि कोई व्यतिरेक व्याप्ति से ही हेतु सत्य बन जाता हो तो शुक्ल (गोरे) ऐसे चैत्र के पुत्रो में श्यामत्व के अभाव में तत्पुत्रत्व का अभाव देखने को मिलता ही है। इसलिए यहाँ प्रयोजित हुआ हेतु "तत्पुत्रत्व" भी प्रामाणिक बन जायेगा। (परंतु वैसा नहीं है।)
"हेतु अन्वय - व्यतिरेकी होने के कारण स्वसाध्य का गमक बनता है।" यह पक्ष भी उचित नहीं है। क्योंकि तब भी "तत्पुत्रत्वादि" हेतु साध्य के साधक बन जाने की आपत्ति आयेगी । कहने का मतलब यह है कि अन्वय और व्यतिरेक दोनो मिल जाने से हेतु सत्य बन जाता हो तो तत्पुत्रत्व हेतु में अन्वय
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