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________________ २७४/८९७ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन व्यतिरेकिणा चेत्, तदापि तत्पुत्रत्वादित एव साध्यसिद्धिप्रसक्तिः । न चास्य त्रैरूप्यलक्षणयोगिनो हेत्वाभासताशङ्कनीया, अनित्यत्वसाधने कृतकत्वादेरपि तत्प्रसङ्गात् । व्याख्या का भावानुवाद : जैसे एक मनुष्य में भिन्न-भिन्न निमित्तो - अपेक्षाओं से पितृत्व, पुत्रत्व आदि अनेक संबंधो को धर्मो को मानने में विरोध नहीं है। (वैसे किसी भी वस्तु में भिन्न-भिन्न अपेक्षा से अनेक धर्म मानने में विरोध नहीं है।) मनुष्य में भिन्न-भिन्न अपेक्षा से रहे हुए पितृत्व आदि अनेक धर्म इस अनुसार से है - वह मनुष्य अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है, परंतु अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है... इत्यादि सोचना, अभिन्ननिमित्तक संबंधो को ही विरोध होता है। अर्थात् अभिन्न एक ही अपेक्षा से वस्तु में अनेकधर्म मानने में विरोध आता है। जैसे कि, वह मनुष्य पिता की अपेक्षा से पिता और पुत्र दोनो कहे जाये तो विरोध आयेगा। इत्यादि स्वयं विचार कर लेना । उस अनुसार से अनेकांत में भी वस्तु द्रव्यदृष्टि से एक है और पर्याय की दृष्टि से अनेक है... इत्यादि भिन्न-भिन्न अपेक्षा से वस्तु में अनेकधर्मो का स्वीकार करने में विरोध नहीं है। सुख, दुःख, मनुष्यत्व, देवत्व आदि पर्याय भी आत्मा में नित्यानित्यात्मक अनेकांत बिना संगत होता नहीं है। अर्थात् यदि आत्मा को कथंचित् नित्यानित्यात्मक = परिणामीनित्य मानेने में न आये, तो उसमें सुख, दुःख, मनुष्यत्व, देवत्व आदि पर्याय नहीं हो सकेंगे। (क्योंकि सर्वथा नित्य मानोंगे तो वह हमेशा स्थायी रहेगा तथा सर्वथा अनित्य मानोंगे तो अत्यंतपरिवर्तित बन जाने से आत्मा की सत्ता ही नहीं रहेगी, पर्याय तो द्रव्य को स्थिर रखकर ही हुआ करते होते है।) जैसे स्थिर सर्पद्रव्य में परस्परविरुद्ध फन चढाई हुई अवस्था तथा फन बिना की अवस्था होती है, फिर भी एक अन्वयी द्रव्य की अपेक्षा से उसमें विरोध नहीं है। अर्थात् अवस्थाभेद होने पर भी सर्प द्रव्यद्रष्टि से एक ही रहता है। इसलिए उसमें अवस्थाभेद स्वीकार करने में विरोध नहीं है। तथा जैसे एक अंगुली में सरलता का विनाश और वक्रता की उत्पत्ति अथवा एक ही स्थायी गोरस में दूधपर्याय का नाश और उत्तर में दहीं पर्याय की उत्पत्ति होती प्रत्यक्ष प्रमाण से देखी जाती है, वैसे सर्व वस्तुओ की द्रव्य-पर्यायात्मकता भी प्रत्यक्ष से देखी जाती ही है। (कहने का मतलब यह है कि, जैसे एक स्थिर रहे हुए अंगुलीद्रव्य में सरलता और वक्रता पर्याय की उत्पत्ति देखने को मिलती है, इसलिए अंगुली द्रव्यपर्यायात्मक है, वह प्रत्यक्ष से मालूम होता ही है। उसी तरह से स्थायी द्रव्यरुप गोरस में दूधपर्याय का विनाश और दहीं पर्याय की उत्पत्ति होती दिखाई देती है । इसलिए गोरस में द्रव्यपर्यायात्मकता प्रत्यक्ष से प्रतीत होती है। वैसे सर्व वस्तुओ की द्रव्यपर्यायात्मकता भी प्रत्यक्ष से मालूम होती ही है। वैसे ही सर्व दर्शनो में अपने इष्टसाध्य की सिद्धि के लिए प्रयोजित किये गये हेतु भी वस्तु की अनेकांतात्मकता माने बिना सत्य-प्रमाणता को पाते नहीं है। यही बात को स्पष्ट किया जाता है - (इस विषय में टीकाकार श्री द्वारा स्वयं) अपने द्वारा बताये गये "परहेतुतमोभास्कर" = प्रतिवादियों के हेतुरुपी अंधकार के विनाशक सूर्यनामक वादस्थल को लिखते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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