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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन २५७/८८० व्याख्या का भावानुवाद : (इस तरह से वे बौद्धो अहिंसारुप धर्मक्षण के प्रत्यक्ष को स्वसत्ता में प्रमाणरुप तथा स्वर्ग प्राप्त कराने की शक्ति में अप्रमाणरुप मानते है । हिंसा से विराम पाकर अहिंसक बनना तथा दान देना, इत्यादि शुभक्रियाओ में स्वर्ग में पहुंचाने की शक्ति मानते है। तथा बौद्ध उसे क्षणिक भी मानते है । जो समय कोई व्यक्ति अहिंसा का पालन करती है, दान देती है, उस समय अहिंसा और दान का प्रत्यक्ष, अहिंसा आदि की सत्ता, उसकी ज्ञानरुपता तथा उसकी सुखरुपता का प्रत्यक्ष ही अनुभव करते है तथा आगे "मैंने दया का पालन किया, उससे सुख हुआ" ऐसे प्रकार के अनुकूलविकल्प को उत्पन्न करता होने से उस अहिंसा आदि की सत्ता में और सखरुपता में प्रमाण माना जाता है। अथवा अहिंसा. दान आदि स्वयं ज्ञानक्षणरुप है। इसलिए वह अपनी सत्ता ज्ञानरुपता तथा सुखरुपता का स्वयं अनुभव करता होने से वे कहे हुए अंशो में प्रमाण है। परंतु अहिंसा आदि में रहनेवाली स्वर्ग-प्रापणशक्ति में तथा उसकी क्षणिकता में वह अहिंसा प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। यद्यपि प्रत्यक्ष से उसकी क्षणिकता तथा स्वर्ग प्रापणशक्ति का अनुभव हो जाता है। परंतु उसको अनुकूल "वह क्षणिक है - वह स्वर्गप्रापक है" इत्यादि विकल्पो की उत्पत्ति होती न होने से प्रत्यक्ष उन अंशो में प्रमाण नहीं माना जाता । इस तरह से एक अहिंसाक्षण को अपनी सत्ता आदि में प्रमाणात्मक तथा स्वर्गप्रापणशक्ति और क्षणिकता में अप्रमाणरुप माननेवाले बौद्ध अनेकांत का स्वीकार करते ही है।) पंक्तिका भावानुवाद : जो - जो हिंसादिविरति-दानादि चित्त का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सत्ता के ज्ञान के विषय में तथा सुखादि के विषय में प्रमाण है, वही क्षणिकता और स्वर्ग-प्रापण शक्ति के विषय में अप्रमाण है। (इसलिए एक ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में उभय का स्वीकार करना वह अनेकांत ही है। (३) इस तरह से वे बौद्धो नीलादि वस्तुओ का नीलादि की अपेक्षा से प्रमेय तथा क्षणिकत्व की अपेक्षा से अप्रमेय कहते है। जो नीलवस्तु अपने नीलरुप, चतुरस्र, उर्ध्वता आदि आकार की दृष्टि से प्रमेय है। अर्थात् प्रत्यक्षप्रमाण का विषय बनती है, वही अपने मध्य में रहे हुए अवयवो की दृष्टि से तथा क्षणिकत्व आदि की अपेक्षा से प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय बनता नहीं है। इस अनुसार से एक ही नीलादि को प्रमेय और अप्रमेयरुप मानना, वह क्या अनेकांत नहीं है ? पंक्तिका भावानुवाद : उस अनुसार जो वस्तु नीलरुप, चतुरस्र, उर्ध्वतादि रुपतया प्रमेय और वही वस्तु मध्यभागवर्ती क्षण-विर्वतादि की दृष्टि से अप्रमेय है। इस तरह से (एक ही वस्तु को प्रमेय और अप्रमेयरुप मानने में) किस तरह से अनेकांत नहीं है ? (अर्थात्) अनेकांत को मानते ही हो । (४) (वे बौद्धो स्वप्नादि भ्रान्तज्ञान को बाह्यपदार्थ की प्राप्ति न कराते होने से भ्रान्त मानते है और स्वरुप की अपेक्षा से अभ्रान्त मानते है। स्वप्न में "मैं राजा हूं", "मैं धनवान हूं" इत्यादि विकल्पज्ञान होता है। वह विकल्पज्ञान बाह्य में धनवानपन का या राजवीपन का अभाव होने के कारण जागते समय कंगालीयत का अनुभव होने से भ्रान्त है। परंतु वह अपने स्वरुप की दृष्टि से अभ्रान्त है। क्योंकि वह विकल्प स्वप्न में अवश्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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