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________________ २५६/८७९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन (इस तरह से वे निर्विकल्पकदर्शन के बाद उत्पन्न होनेवाले सविकल्पकज्ञान को बाह्यार्थ में सविकल्पक तथा स्वरुप में निर्विकल्पक मानते है। निर्विकल्पकदर्शन के बाद "यह नीला है।" "यह पीला है।" इत्यादि विकल्पज्ञान उत्पन्न होते है। वह विकल्पज्ञान अपने आकारमात्र का ही निश्चय करनेवाला होता है। वह बाह्य नीलादि अंशो में ही शब्दयोजना होने से सविकल्पक होता है। स्वरुप की दृष्टि से तो सर्वज्ञान निर्विकल्पक ही होता है । ज्ञान सविकल्पक हो या निर्विकल्पक हो, दोनो का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तो निर्विकल्पकरुप ही होता है। धर्मकीर्ति नाम के बौद्धाचार्य ने स्वयं न्यायबिन्दु ग्रंथ में कहा है कि... "समस्त चित्त, सामान्य अवस्था को ग्रहण करनेवाला ज्ञान तथा चैत्त, विशेष अवस्थाओ के ग्राहक ज्ञानो का स्वरुपसंवेदन प्रत्यक्षनिर्विकल्पक होता है ।" इसलिए एक ही विकल्पज्ञान को बाह्यनीलादि की अपेक्षा से सविकल्पक तथा स्वरुप की अपेक्षा से निर्विकल्पक मानते है। इस तरह से एक ही विकल्पज्ञान को सविकल्पक और निर्विकल्पक उभयरुप मानकर बौद्ध अनेकांत का स्वीकार कर ही लेते है।) पंक्ति का भावानुवाद : उस अनुसार से निर्विकल्पक दर्शन के उत्तरकाल में होनेवाला स्वाकार अध्यवसायरुप एक ही विकल्पज्ञान बाह्यार्थ में सविकल्पक होता है। परंतु स्वरुप में निर्विकल्पक होता है। इस तरह से एक विकल्पज्ञान के दो रुपो का स्वीकार करते उन बौद्धो को अनेकांतवाद मानने की आपत्ति क्यों नहि आयेगी ? अर्थात् एक विकल्पज्ञान के दो रुपो का स्वीकार करने से बौद्धो ने अनेकांतवाद का स्वीकार कर ही लिया है। ।।२।। तथा हिंसाविरतिदानादिचित्तं यदेव स्वसंवेदनगतेषु सत्त्वबोधरूपत्वसुखादिषु प्रमाणं, तदेव क्षणक्षयित्वस्वर्गप्रापणशक्तियुक्तत्वादिष्वप्रमाणमित्यनेकान्त एव ३ । तथा यद्वस्तु नीलचतुरस्रोर्ध्वतादिरूपतया प्रमेयं, तदेव मध्यभागक्षणविवर्त्तादिनाऽप्रमेयमिति कथं नानेकान्तः ४ । तथा सविकल्पकं स्वप्नादिदर्शनं वा यद्बहिरर्थापेक्षया भ्रान्तं ज्ञानं, तदेव स्वस्वरुपापेक्षयाऽभ्रान्तमिति बौद्धाः प्रतिपन्नाः ५ । तथा यन्निशीथिनीनाथद्वयादिकं द्वित्वेऽलीकं, तदपि धवलतानियतदेशचारितादौ तेऽनलीकं प्रतिपद्यन्ते ६ । कथं च भ्रान्तज्ञानं भ्रान्तिरूपतयात्मानमसंविदत् ज्ञानरूपतया चावगच्छत् स्वात्मनि भावद्वयं विरुद्धं न साधयेत् ७ । तथा पूर्वोत्तरक्षणापेक्षयैकस्यैव क्षणस्य जन्यत्वं जनकत्वं चाभ्युपागमन् ८ । तथाकारमेव ज्ञानमर्थस्य ग्राहकं नान्यथेति मन्यमानाश्चित्रपटग्राहक ज्ञानमेकमप्यनेकाकारं संप्रतिपन्नाः ९ । तथा सुगतज्ञानं सर्वार्थविषयं सर्वार्थाकारं चित्रं कथं न भवेत् १० । तथैकस्यैव हेतोः पक्षधर्मसपक्षसत्त्वाभ्यामन्वयं विपक्षेऽविद्यमानत्वाद्व्यतिरेक चान्वयविरुद्धं ते तात्त्विकमूरीचक्रिरे ११ । एवं वैभाषिकादिसौगताः स्वयं स्याद्वादं स्वीकृत्यापि तत्र विरोधमुद्भावयन्तः स्वशासनानुरागान्धकारसंभारविलुप्तविवेकदृशो विवेकिनामपकर्णनीया एव भवन्ति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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