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________________ २५८/८८१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन होता ही है। इसी तरह से सीप में होता रजत का ज्ञान अर्थात् सीप में रजत का भान करानेवाले मिथ्या विकल्प रजतरुप बाह्य अर्थ का प्रापक न होने से भ्रान्त है परंतु तादृशमिथ्याज्ञान अवश्य हुआ तो है ही - उसका स्वरुपसंवेदन तो होता ही है। इसलिए स्वरुप की दृष्टि से अभ्रान्त है।) पंक्ति का भावानुवाद : उस अनुसार से सविकल्पक या स्वप्नादि दर्शन जो बाह्यार्थ की अपेक्षा से भ्रान्तज्ञान है, वही स्व - स्वरुप की अपेक्षा से अभ्रान्त ही है। (इस तरह से एक ही सविकल्पक या स्वप्नादि दर्शन में भ्रान्तता और अभ्रान्तता का स्वीकार करने वाले) बौद्ध अनेकांत का भी स्वीकार करते ही है। (५) (इस अनुसार से जो व्यक्ति को आंख के रोग के कारण दो चंद्र का ज्ञान होता है । उस मिथ्याज्ञान में भी आप अनेकांत का स्वीकार करते है। क्योंकि आप द्विचंद्रज्ञान को द्वित्व अंश में विसंवादि होने से अप्रमाण मानते हो और धवलता, नियतदेश में गमन करना इत्यादि की अपेक्षा से प्रमाण मानते हो । इसलिए एक ही द्विचंद्रज्ञान को अंशतः प्रमाण तथा अंशत: अप्रमाण कहना वह अनेकांत का ही स्वीकार है।) पंक्ति का भावानुवाद : उस अनुसार से जो द्विचंद्रविषयक ज्ञान है। उसमें वह द्वित्व अंश में अलीक - असत्य है और वही ज्ञान धवलता, नियतदेश के अंदर फिरना इत्यादि अंश में अनलीक -- सत्य है। (ऐसा बौद्ध स्वीकार करते है - वह अनेकांतवाद का ही स्वीकार है ।) (६) (उसी तरह से जो व्यक्ति को मिथ्याज्ञान उत्पन्न होता है, वह व्यक्ति उस मिथ्याज्ञानको ज्ञानरुप से तो अनुभव करता है। परन्तु मिथ्यात्वरुप से अनुभव करता नहीं है। यदि अपनी भ्रान्तता को जानने लगे तो सम्यग्ज्ञान ही हो जायेगा । अथवा मिथ्याज्ञान अपनी ज्ञानरुपता का तो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से साक्षात्कार करते है, परन्तु अपनी भ्रान्तता को जान नहीं सकता है। इसलिए एक ही मिथ्याज्ञानका अंशतः ज्ञानरुप से स्वरुपसाक्षात्कार तथा अंशतः मिथ्यारुप से असाक्षात्कार होता है। इस तरह से स्पष्टतया दो विरोधिभाव एकत्र अवस्थान करते है। इसलिए आपने अनेकांतवाद का मजबूरन भी स्वीकार किया ही है।) पंक्ति का भावानुवाद : भ्रान्तज्ञान-मिथ्याज्ञान भ्रान्तिरुपतया अपना असंवेदन करता और ज्ञानरुपतया अनुभव में आता (स्व संवेदन करता) आत्मा में (मिथ्याज्ञान युक्त आत्मा में) प्रवर्तित होता है। इसलिए किस तरह से एक स्थान पे दो विरोधिभावो का विरोध हो सकता है ? | __ (आप लोग कोई एक क्षण को पूर्वक्षण के कार्य के रुप में तथा उत्तरक्षण के कारण के रुप में मानते ही हो । यदि वह क्षण पूर्वक्षण का कार्य न हो, तो सत् होने पर भी किसी से भी उत्पन्न होता न होने से वह नित्य बन जायेगी। यदि वह उत्तरक्षण को उत्पन्न न करे तो अर्थक्रियाकारी न होने से अवस्तु बन जायेगी। तात्पर्य यही है कि एक मध्यक्षण में पहले की अपेक्षा से कार्यता और उत्तर की अपेक्षा से कारणतारुप विरुद्ध धर्म मानना वह अनेकांत का स्पष्टतया स्वीकार ही है।) __पंक्ति का भावानुवाद : उस अनुसार पूर्वोत्तरक्षण की अपेक्षा से एक ही क्षण में जन्यत्व और जनकत्व का आप लोगो ने स्वीकार किया हुआ ही है। इसलिए आप लोगो ने अनेकांवाद का स्वीकार किया ही है।) (८) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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