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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन सिद्ध भी स्व-कर्म परमाणुसंयोग के क्षय की अपेक्षा से सिद्ध है। परंतु अन्यजीवो के उपर लगे हुए कर्म परमाणु संयोग की अपेक्षा से असिद्ध है । अर्थात् सिद्ध = मुक्तजीव अपने आत्मा के उपर लगे हुए कर्मसंयोग क्षय की अपेक्षा से सिद्ध है। अन्य आत्माओं के उपर लगे हुए कर्मसंयोग की अपेक्षा से सिद्ध नहीं है । यदि वह अन्य जीवो के उपर लगे हुए कर्मसंयोग की अपेक्षा से भी सिद्ध हो तो सर्व जीव सिद्ध बन जायेंगे । (क्योंकि अन्यजीवो के उपर लगे हुए कर्मसंयोग की अपेक्षा से सिद्ध हो, तो उसका मतलब यह हुआ कि "अन्यआत्माओ का धर्म भी सिद्धजीव का स्वपर्याय ही है । तब वह अन्य आत्माओ से संयुक्त कर्मपरमाणुओ की अपेक्षा से भी सिद्ध माना जाता है ।" इस तरह से अन्यसंसारी आत्माओ और सिद्ध आत्माओ में सीधा स्वपर्याय का संबंध होने से एकरुपता हो जायेगी और उससे या तो समस्त संसारी जीव सिद्ध बन जाने की आपत्ति आयेगी या तो सिद्धात्मा संसारी बन जाने की आपत्ति आयेगी। अभेद पक्ष में एकरुपता है । उसमें सर्व संसारी बन जायेंगे या सर्व मुक्त बन जायेंगे। जो किसीको भी इष्ट नहीं है ।) इस तरह से अनेकांतवाद में " किया हुआ कार्य भी कथंचित् नहीं किया हुआ, कहा हुआ वचन भी कथंचित् नहि कहा हुआ, खाया हुआ भोजन भी कथंचित् नहीं खाया हुआ" इत्यादि परवादियों द्वारा जो दूषण कहे गये है, वे सभी दूषणो का खंडन भी हो जाता है । (क्योंकि एक ही वस्तु में भिन्न भिन्न अपेक्षा से विरोधी धर्म रह सकते है ।) २५३/८७६ शंका : आप हमको बताये कि सिद्धात्माओ को जो कर्मक्षय होता है । वह एकांत से होता है या कथंचित् होता है ? “सिद्धो को एकांत से कर्मक्षय होता है ।" यह प्रथम पक्ष कहोंगे तो अनेकांतवाद की हानी होगी और "सिद्धो को कथंचित् कर्मक्षय होता है ।" यह द्वितीयपक्ष कहोंगे तो सिद्धो को भी सर्वथा कर्मक्षय का अभाव होने से असिद्ध बन जाने की आपत्ति आयेगी। जैसे संसारिजीवो के कर्मो का सर्वक्षय हुआ न होने से असिद्ध कहे जाते है, वैसे सिद्धो को भी असिद्ध कहने की आपत्ति आयेगी । समाधान: सिद्धो के द्वारा भी स्वकर्मो का क्षय स्थिति, रस और प्रकृतिरुप की अपेक्षा से किया है । परंतु कर्मपरमाणु मात्र की अपेक्षा से क्षय किया नहीं है । ( कहने का मतलब यह है कि, सिद्धो के द्वारा भी अपने आत्मा के उपर लगे हुए कर्मपरमाणुओ की स्थिति का, उन कर्मों में शुभाशुभ आदि फल देने की शक्ति का तथा अपने प्रतिकर्मत्वरुप में परिणमन करने के स्वभाव का (अर्थात् उदय में आते ज्ञानादि आत्मगुणो को ढकने के स्वभाव का) नाश किया है। सिद्धोने उन कर्मपरमाणुओ को अपने आत्मा में कर्मत्वरुप में परिणमन पाते रोक दिये है। (अर्थात् अपने आत्मा में कर्मरुप से संबंध नहीं रहने दिया है। परन्तु परमाणुरुप पुद्गल द्रव्य का क्षय किया नहीं है ।) क्योंकि परमाणुरुप पुद्गल द्रव्यो को क्षय करने के लिए कोई अनंतशक्तिशाली व्यक्ति भी समर्थ बनती नहीं है । अन्यथा (परमाणुरुप पुद्गलद्रव्य का नाश हो सके तो) मुद्गरादि द्वारा घटादि पदार्थो के परमाणुओ का समूलविनाश हो जायेगा और उससे कुछ काल के बाद सर्ववस्तुओ का अभाव हो जायेगा। (क्योंकि वस्तु के उपादानकारणभूत परमाणुओ का समूलनाश होने कारण वस्तुओ की पुन: उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। उसके योग से सर्ववस्तुओ का अभाव हो जायेगा । परंतु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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