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________________ २५४/८७७ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन वहाँ भी मुद्गरादि से घटादि पर्यायो को नाश होता है। परंतु परमाणुओ का नाश नहीं होता है। ऐसा स्वीकार करेंगे तो सर्व वस्तुओ के अभाव की आपत्ति नहीं आयेगी।) इसलिए सिद्धो के कर्मक्षय में अनेकांत ही सिद्ध होता है। इस अनुसार से प्रत्यक्ष और अनुमानादि प्रमाणो के द्वारा सर्वथा अबाधित अनेकांतशासन की सिद्धि होती है। ___ एते हि बौद्धादयः स्वयं स्याद्वादवादं युक्त्याभ्युपगच्छन्तोऽपि तं वचनैरेव निराकुर्वन्तो नूनं कुलीनताभिमानिनो मानवस्य स्वजननीमाजन्मतोऽप्यसतीमाचक्षाणस्य वृत्तमनुकुर्वन्ति । तथाहि-प्रथमतः सौगताभ्युपगतोऽनेकान्तः प्रकाश्यते । दर्शनेन क्षणिकाक्षणिकत्वसाधारणस्यार्थस्य विषयीकरणात्कुतश्चिभ्रमनिमित्तादक्षणिकत्वारोपेऽपि न दर्शनमक्षणिकत्चे प्रमाणं, किं तु प्रत्युताप्रमाणं, विपरीताध्यवसायाक्रान्तत्वात् । क्षणिकत्वेऽपि न तत्प्रमाणं, अनुरूपाध्यवसायाजननात् नीलरूपे तु तथाविधनिश्चयकरणात्प्रमाणमित्येवं वादिनां बौद्धानामेकस्यैव दर्शनस्य क्षणिकत्वाक्षणिकत्वयोरप्रामाण्यं, नीलादौ तु प्रामाण्यं प्रसक्तमित्यनेकान्तवादाभ्युपगमो बलादापतति १ । तथा दर्शनोत्तरकालभाविनः स्वाकाराध्यवसायिन एकस्यैव विकल्पस्य बाह्याऽर्थे सविकल्पकत्वमात्मस्वरूपे तु सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमिति वचनानिर्विकल्पकत्वं च रूपद्वयमभ्युपगतवतां तेषां कथं नानेकान्तवादापत्तिः २ । व्याख्या का भावानुवाद : ये निर्बाध अकाट्ययुक्तियों से बौद्ध आदि सर्ववादियोंने स्वयं स्याद्वाद का स्वीकार करते होने पर भी वे स्याद्वाद को असंबद्धवचनो के द्वारा निराकरण किया है। (वे बौद्धो इत्यादि वादि अपने शास्त्र व्यवहार में और लोक व्यवहार में स्याद्वाद का स्वीकार करते होने पर भी ऐसे वैसे वचनो के द्वारा स्याद्वाद का निराकरण करके) सचमुच, कुलीन की तरह दयापात्र बन जाते है। जो मनुष्य अपनी कुलीनता का अभिमान रखने पर भी वह मनुष्य (अनभिज्ञता वश अपने ही वचनो के द्वारा) अपनी माता को इस जन्म से भी असती = व्यभिचारिणी कहते है। (अपनी कुलीनता का अभिमान माता की पवित्रता के योग से है, फिर भी माता को असती कहनेवाला जैसे मूर्ख है, वैसे अपने शास्त्रव्यवहारो और लोकव्यवहारो को चलाने के लिए स्याद्वाद का आसरा लेने पर भी स्याद्वाद का खंडन करनेवाले बौद्ध इत्यादि वादि अनभिज्ञ है।) वे वादि अनेकांतवाद का आसरा किस तरह से लेते है, वह अब बताया जाता है - उसमें प्रथम सुगत = बौद्ध ने स्वीकार किये अनेकांत का प्रकाशन किया गया है। (यहाँ प्रथम बौद्ध किस तरह से स्याद्वाद का स्वीकार करते है, उसे विस्तार से बताकर बाद में पंक्ति का भावानुवाद लिखेंगे।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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