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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन एतेन G-37 यदप्युच्यते “ अनेकान्ते प्रमाणमप्यप्रमाणं सर्वज्ञोऽप्यसर्वज्ञः सिद्धोऽप्यसिद्धः " इत्यादि, तदप्यक्षरगुणनिकामात्रमेव, यतः प्रमाणमपि स्वविषये प्रमाणं परविषये चाप्रमाणमिति स्याद्वादिभिर्मन्यत एव सर्वज्ञोऽपि स्वकेवलज्ञानापेक्षया सर्वज्ञः सांसारिकजीवज्ञानापेक्षया त्वसर्वज्ञः । यदि तदपेक्षयापि सर्वज्ञः स्यात्, तदा सर्वजीवानां सर्वज्ञत्वप्रसङ्गः, सर्वज्ञत्वस्यापि छाद्मस्थिकज्ञानित्वप्रसङ्गो वा । सिद्धोऽपि स्वकर्मपरमाणुसंयोगक्षयापेक्षया सिद्धः परजीवकर्मसंयोगापेक्षया त्वसिद्धः । यदि तदपेक्षयापि सिद्धः स्यात्, तदा सर्वजीवानां सिद्धत्वप्रसक्तिः स्यात् । एवं “ कृतमपि न कृतं, उक्तमप्यनुक्तं, भुक्तमप्यभुक्तं " इत्यादि सर्वं यदुच्यते परैः, तदपि निरस्तमवसेयम् । ननु सिद्धानां कर्मक्षयः किमेकान्तेन कथञ्चिद्वा ? आद्येऽनेकान्तहानिः । द्वितीये सिद्धानामपि सर्वथा कर्मक्षयाभावादसिद्धत्वप्रसङ्गः, संसारिजीववदिति । अत्रोच्यते । सिद्धैरपि स्वकर्मणां क्षयः स्थित्यनुभागप्रकृतिरूपापेक्षया चक्रे, न परमाण्वपेक्षया । न ह्यणूनां क्षयः केनापि कर्तुं पार्यते, अन्यथा मुद्गरादिभिर्घटादीनां परमाणुविनाशे कियता कालेन सर्ववस्त्वभावप्रसङ्गः स्यात् 1 ततस्तत्राप्यनेकान्त एवेति सिद्धं दृष्टेष्टाविरुद्धमनेकान्तशासनम् ।। २५२/८७५ व्याख्या का भावानुवाद : (उपरोक्त विवेचन किया) उसके द्वारा " अनेकांतवाद में प्रमाण भी अप्रमाण, सर्वज्ञ भी असर्वज्ञ तथा सिद्ध भी असिद्ध = संसारि बन जायेगा" इत्यादि आपका कथन भी मात्र अर्थशून्य अक्षरो की गणना करने समान निरर्थक है । क्योंकि (स्याद्वादि ऐसे हम ) प्रमाण को भी अपने विषय में ही प्रमाणरुप मानते है और परविषय में अप्रमाणरुप मानते है । सर्वज्ञ भी स्व- केवलज्ञान की अपेक्षा से सर्वज्ञ है । परन्तु संसारिजीवो के अल्पज्ञान की अपेक्षा से सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ यदि संसारिजीवो के अल्पज्ञान की अपेक्षा से भी सर्वज्ञ हो तो सर्व जीवो को सर्वज्ञ मानने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् तादृश अपेक्षा से सर्वज्ञ मानेंगे तो उसका यह अर्थ होता है कि संसार के समस्त जीव सर्वज्ञ है अथवा सर्वज्ञ भी छाद्मस्थिकज्ञानि (हमारे जैसे अल्पज्ञानि) बन जायेंगे। (कहने का मतलब यह है कि सर्वज्ञ संसारि जीवो के अल्पज्ञान की अपेक्षा से सर्वज्ञ हो तो संसारिजीव सर्वज्ञ बन जायेंगे । सर्वज्ञ अपने ज्ञान द्वारा सर्व को जानता है । यदि वह सर्वज्ञ हम लोगो के ज्ञान द्वारा भी पदार्थो का ज्ञान कर सकते तो हमारा आत्मा में और उनके आत्मा में कोई अंतर नहीं रहेगा। क्योंकि जिस तरह से हम जगत के पदार्थो को हमारे ज्ञान से जानते है उसी तरह से सर्वज्ञ भी हमारे ज्ञान से ही जानता है । इसलिए सर्वज्ञ और हमारे (छद्मस्थो के) आत्मा में अभेद होने से तो छद्मस्थ ऐसे हम सर्वज्ञ जैसे बन जायेंगे अथवा तो सर्वज्ञ हमारे जैसे अल्पज्ञ बन जायेंगे।) 1 ( G - 37 ) तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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