SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन देशेनेति पक्षो न क्षोदक्षमः । नापि सामस्त्येनेति पक्षः । यदि सामस्त्येनोत्पन्नः स्यात्, ततो मृदः प्रतीतिस्तदानीं न स्यात्, न च सा नास्ति, मार्दोऽयं न पुनः सौवर्ण इत्येवमपि प्रतीतेः । ततो घटो यदोत्पद्यते तदा स घटात्मनोत्पद्यते मृत्पिण्डात्मना विनश्यति मृदात्मना च ध्रुव इति बलादभ्युपगन्तव्यं स्यात् । यथा हि वस्तु सर्वैः प्रतीयते तथा चेन्नाभ्युपगम्यते, तदा सर्ववस्तुव्यवस्था कदापि न भवेत् । अतो यथाप्रतीत्यैव वस्त्वस्त्विति । G- 26 अत एव यद्वस्तु नष्टं तदेव नश्यति नङ्क्ष्यति च कथञ्चित्, यदुत्पन्नं तदेवोत्पद्यत उत्पत्स्ये च कथञ्चित्, यदेवं स्थितं तदेव तिष्ठति स्थास्यति च कथञ्चित् । तथा यदेव केनचिद्रूपेण नष्टं तदेव केनचिद्रूपेणोत्पत्रं केनचिद्रूपेण स्थितं च, एवं यदेव नश्यति तदेवोत्पद्यते तिष्ठति च, यदेव नङ्क्ष्यति तदेवोत्पत्स्यते स्थास्यति चेत्यादि सर्वमुपपत्रं, अन्तर्बहिश्च सर्वस्य वस्तुनः सर्वदोत्पादादित्रयात्मकस्यैवाबाधिताध्यक्षेणानुभूयमानत्वात्, अनुभूयमाने च वस्तुनः स्वरूपे विरोधासिद्धेः, अन्यथा वस्तुनो रूपरसादिष्वपि विरोधप्रसक्तेः । प्रयोगश्चाऽत्रायम्-सर्वं वस्तूत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत्त्वात्, यदुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं न भवति तत्सदपि न भवति, यथा खरविषाणम्, तथा चेदम्, तस्मात्तथेति केवलव्यतिरेकानुमानम् । अनेन च सल्लक्षणेन नैयायिकादिपरिकल्पितः G- 27 सत्तायोगः सत्त्वं बौद्धाभिमतं - 28 चार्थक्रियालक्षणं सत्त्वं द्वे अपि प्रतिक्षिप्ते द्रष्टव्ये । तन्निरासप्रकारश्च ग्रन्थान्तरादवसातव्यः ।। २३४ / ८५७ व्याख्या का भावानुवाद : (जो वस्तु को त्रयात्मक मानता नहीं है, वह त्रयात्मक वस्तु को न माननेवाले) परवादि को यह पश्न करना चाहिए की,... “यदि घट विनाश प्राप्त करता हो तो क्या वह देश से विनाश पाता है या समग्रतया विनाश प्राप्त करता है ? “घट देश से विनाश प्राप्त करता है" -- ऐसा कहोंगे तो वह पक्ष उचित नहीं है । क्योंकि ( यदि घट का देश से विनाश होता हो) तो घट का एकदेश ही विनाश पायेगा, परंतु सर्व घट विनाश पायेगा नहि। और वह घट तो समग्रतया विनाश पाया हुआ प्रतीत होता है । परंतु घट का एकदेश विनाश पाया हुआ किसीको भी प्रतीत होता नहीं है । इसलिए "देशेन" पक्ष स्वीकार्य बनता नहीं है। T “समग्रतया घट विनाश प्राप्त करता है" - यह पक्ष भी उचित नहीं है, क्योंकि घट समग्रतया विनाश प्राप्त कर ले तो विनाश पाये हुए घट के कपालो में मिट्टीरुप की (जो प्रतीति होती है वह प्रतीति) हो नहीं सकेगी, क्योंकि घट समग्रतया नाश हुआ है और तब कपाल मिट्टीरुप नहीं है, ऐसी प्रतीति तो होती ही नहीं है। परंतु ये कपाल मिट्टी की है, सुवर्ण की नहीं है, ऐसे प्रकार की ही प्रतीति होती है । इसलिए समग्रतया घट का (G-26-27-28) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy