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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५७, जैनदर्शन - २३३/८५६ (आप्तमीमांसा में भी ) कहा है कि... "घट, मुकुट और सुवर्ण के अर्थी मनुष्य उसके नाश, उत्पाद और स्थिति में अनुक्रम से शोक, प्रमोद और मध्यस्थता को प्राप्त करते है । इसलिए शोकादि क्रिया सहेतुक सिद्ध होती है। (अर्थात् तीन भिन्न व्यक्तियों को एक साथ हुए तीन प्रकार के भाव (सुवर्णरुप वस्तु की) विनाश, उत्पाद और स्थितिरुप तीन अवस्थाओं के बिना हो नहीं सकते है । इससे तीन व्यक्तियों को होते भिन्नभिन्न तीन भाव, वस्तु में रहे हुए तीन धर्मो के कारण हुए है - वह सिद्ध होता है। उससे वस्तु त्रयात्मक सिद्ध होती है ।) " तथा दूध के व्रतवाला दहीं खाता नहीं है - दहीं के व्रतवाला दूध खाता नहीं है और अगोरस व्रतवाला दूध-दहीं उभय को खाता नहीं है, उससे भी वस्तु त्रयात्मक सिद्ध होती है। (अर्थात् जो व्रतधारीने आज नियम किया कि “आज में दूध ही पिउंगा " ऐसे प्रकार के पयोव्रतवाला व्यक्ति दहीं खाता नहीं है। अब यदि दहीं अवस्था में दूध का विनाश हुआ न हो तो, उस व्यक्ति को दहीं भी खाना चाहिए। क्योंकि दहीं अवस्था में विद्यमान है और खुद को दूध खाने का नियम है। परंतु वह व्यक्ति दहीं खाता नहीं है। इससे मानना ही पडेगा कि दहीं जमने की अवस्था में दूध का नाश हुआ ही है। जो व्रतधारीने "आज में दहीं ही खाउंगा" ऐसा नियम किया है वह व्यक्ति दूध खाता नहीं है । अब यदि दूध अवस्था में दहीं नाम की नई अवस्था का उत्पाद होता न हो तो (और दूध का नाम ही दहीं हो तो) दधिव्रतवाले को दूध भी पीना चाहिए, क्योंकि उसमें नये दहीं उत्पन्न होने की संभावना नहीं है। परंतु दहींव्रती दूध पीता नहीं है। इससे मानना ही पडेगा कि दूध से उत्पन्न होनेवाला दहीं भिन्न वस्तु है और दहीं का उत्पाद होता है । अब जिसको अगोरस व्रत है अर्थात् दूध और दहीं दोनो न खाने का व्रत है । वह व्यक्ति दोनो को खाता नहीं है । क्योंकि गोरस की सत्ता दोनो में भी है। यदि गोरस नाम की एक अनुस्यूत वस्तु दूध और दहीं में न हो तो उसको दोनो को भी खाना चाहिए। परंतु वह दोनो को खाता नहीं । इससे गोरस की दोनो में स्थिति माननी चाहिए।) इस तरह से वस्तु उत्पादादि तीनधर्मोवाली सिद्ध होती है । परो हि वादीदं प्रष्टव्यः । यदा घटो विनश्यति तदा किं देशेन विनश्यति आहोस्वित्सामस्त्येनेति ? यदि देशेनेति पक्षः, तदा घटस्यैकदेश एव विनश्येत् न तु सर्वः, सर्वश्च स विनष्टस्तदा प्रतीयते, न पुनर्घटस्यैकदेशो भग्न इति प्रतीतिः कस्यापि स्यात्, अतो न देशेनेति पक्षः कक्षीकारार्हः । सामस्त्येन विनश्यतीति पक्षोऽपि न, यदि हि सामस्त्येन घटो विनश्येत् तदा घटे विनष्टे कपालानां मृद्रूपस्य च प्रतीतिर्न स्यात्, घटस्य सर्वात्मना विनष्टत्वात् । न च तदा कपालानि मृद्रूपं च न प्रतीयन्ते, मार्दान्येतानि कपालानि न पुनः सौवर्णानीति प्रतीतेः, अतः सामस्त्येनेत्यपि पक्षो न युक्तः । ततो बलादेवेदं प्रतिपत्तव्यं, घटो घटात्मा विनश्यति कपालात्मनोत्पद्यते मृद्रव्यात्मना तु ध्रुव इति । तथा घटो यदोत्पद्यते, तदा किं देशेनोत्पद्यते, सामस्त्येन वा ? इत्यपि परः प्रष्टव्योऽस्ति । यदि देशेनेति वक्ष्यति तदा घटो देशेनैवोत्पन्नः प्रतीयेत न पुनः पूर्ण इति । प्रतीयते च घटः पूर्ण उत्पन्न इति । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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