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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
के कारण कथंचित् भिन्न होने पर भी परस्पर निरपेक्ष नहीं है, परंतु एकदूसरे की अपेक्षा रखते है। वे परस्पर निरपेक्ष रुप से अत्यंत भिन्न नहीं है । यदि वे परस्पर निरपेक्ष और अत्यंत भिन्न हो जाये तो उसका आकाशकुसुम की तरह अभाव हो जायेगा। (उत्पादादि तीन परस्पर निरपेक्ष और अत्यंतभिन्न नहीं है) वह इस अनुसार से सिद्ध होता है - केवल उत्पाद सत् नहीं है, क्योंकि स्थिति और विगम से रहित है । जैसे कि, कछुओ के रोम (रोंगटे) ।
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उस अनुसार से, केवलविनाश सत् नहीं है । क्योंकि स्थिति - उत्पत्ति से रहित है । जैसे कि, कछुओ के रोम (रोंगटे) । उस अनुसार, केवलस्थिति सत् नहीं है। क्योंकि विनाश और उत्पत्ति से रहित है । जैसे कि, कछुओ के रोम (रोंगटे) । ( कहने का मतलब यह है कि जगत में जो पदार्थ उत्पन्न होते है, उसकी स्थिति बनी रहती है और कालांतर में विनाश भी होता है, ऐसा अनुभव से सिद्ध ही है। उसी तरह से जो पदार्थ की स्थिति हो, वह वस्तु कभी उत्पन्न भी हुई ही होती है और कालांतर में उनका विनाश भी होता दिखाई देता है। उसी अनुसार से जो वस्तु का विनाश होता है, उसकी पूर्वावस्था में उत्पत्ति हुई ही होती है। इस प्रकार उत्पत्ति, स्थिति और विनाश परस्पर सापेक्ष है। यदि उसको परस्पर निरपेक्ष मानोंगे तो कछुओ के रोंगटे की तरह असत् बन जायेंगे क्योंकि कछुओ के रोंगटे उत्पन्न होते न होने से ही उसमें स्थिति और विनाश देखने को नहीं मिलते है। उसी तरह से स्थिति देखने को मिलती न होने से ही उत्पाद और विनाश भी अनुभवपथ में आते नहीं है और विनाश होता दिखाई न देने से उत्पाद और स्थिति भी अनुभवपथ में आते नहीं है। इससे उत्पादादि तीन में से दो की असत्ता से एककी असत्ता सिद्ध होती है। इसलिए फलित होता है कि.. उत्पादादि तीनो परस्पर सापेक्ष है । परस्परनिरपेक्ष रुप से एक भी सत् सिद्ध होते नहीं है । इस प्रकार एक वस्तु में वे तीनो साथ रहते है ।)
इस अनुसार से परस्पर सापेक्ष ही उत्पादादि तीन सत् बनते है और वस्तु में भी उसकी परस्पर सापेक्ष ही सत्ता होती है। (अर्थात् ये तीनरुप से युक्त वस्तु ही सत् होती है, वे तीन धर्मो से रहित वस्तु असत् बन जाती है।) इस तरह से उत्पादादि को परस्पर सापेक्ष होने से वस्तु को त्रयात्मक क्यों न कहा जाये ? अर्थात् वस्तु उत्पादादि तीन धर्मो से सापेक्ष होने से त्रयात्मक कही ही जाती है - सिद्ध हो ही जाती है - इसलिए कहा है कि..... " एक राजाने सुवर्ण के घट को तोडने के लिए सुनार को कहा तब ) सुवर्णघट का नाश होने पर राजकुमारीने शोक किया और (उसमें से जब सुनारने मुकुट को बनाना शुरु किया तब) मुकुट उत्पन्न होने पर राजकुमार ने प्रीति को धारण की (राजकुमार खुश हुआ।) फिर भी ये दोनो अवस्था में सुवर्ण, सुवर्ण के रुप में रहता होने से उसके खजाने में हानी होती न होने से ) राजा मध्यस्थता को धारण करता है । इस प्रकार (घटरुप) पूर्व आकार के परिक्षयरुप और उससे अपर (मुकुटरुप) आकार की उत्पत्तिरुप उभय अवस्था का आधार एक सुवर्ण बनता है । अर्थात् आकार बदलने पर भी सुवर्ण, सुवर्ण के रुप से स्थिर रहता है। (इसलिए एक सुवर्ण में उत्पत्ति, स्थिति और विनाश ये तीन धर्म रह गये, इससे) सिद्ध होता है कि, वस्तु त्रयात्मक होती है ।
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