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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५६, जैनदर्शन
ज्ञानाद्वैतवादि ( पूर्वपक्ष ) : अरे जैनो ! आप अर्थस्य - आत्मस्वरुपस्य यद् ग्राहकं तत्प्रत्यक्षम् अर्थात् अर्थ का यानी कि अपने आंतरिक स्वरुप का ग्राहक जो ज्ञान है, उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है । इतनी ही प्रत्यक्ष की व्याख्या करो न ! अर्थ शब्द से बाह्यार्थ घटपटादि की विवक्षा क्यों करते हैं ? क्योंकि बाह्यार्थ घटपटादि की सत्ता ही नहीं है। अर्थात् अर्थ के तात्पर्य ज्ञान को अपने स्वरुप तक ही सीमित बना देना, उसको घटपटादि बाह्यपदार्थों तक ले जाना नहि चाहिए, क्योंकि ज्ञान से अतिरिक्त घटपटादि बाह्यपदार्थो की सत्ता ही नहीं है।
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(यहाँ ज्ञानाद्वैतवादि की मान्यता है कि.... ज्ञान ही एक परमार्थसत् है । वही अविद्यावासना के विचित्र विपाक से नील-पीत आदि अनेक पदार्थो के आकार में प्रतिभास होने लगता है। इसलिए "अर्थग्राहक " पद का अर्थ ज्ञान का केवल अपने स्वरुप को ग्रहण करना इतना ही अर्थ करना ।)
समाधान ( उत्तरपक्ष ) : "अर्थग्राहक" पद के साथ आगे कहे जानेवाले “ग्रहणेक्षया” पद का संबंध कर लेना चाहिए। " ग्रहणेक्षया" पद (खास करके) बाह्यार्थ का निराकरण करनेवाले योगाचार के मत का खंडन करने के लिए है । "ग्रहणेक्षया" पद का अर्थ इस अनुसार से है - ग्रहणेक्षया - ज्ञान से भिन्न (सत्ता रखनेवाले) बाह्यार्थ घटादि पदार्थो के संवेदन को ग्रहण कहा जाता । उस बाह्य पदार्थो के ग्रहण की इक्षा = अपेक्षा करके अर्थ को ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है ।
शंका : " अर्थस्य ग्राहकं" इस पद से ही "बाह्यार्थ की अपेक्षा से अर्थ का ग्राहक जो ज्ञान है वह प्रत्यक्ष है ।" ऐसा अर्थ निकल ही जाता है तब " ग्रहणेक्षया" पद निरर्थक हो जाता है ।
समाधान : ऐसा नहि कहना । क्योंकि अर्थग्राहक पद से " अपने स्वरुपमात्र का ग्राहक " इतना अर्थ भी निकल सकता है। इस वक्त विज्ञानवादियोंने भी अर्थग्राहक पद का वही अर्थ निकालके प्रत्यक्षज्ञान को मात्र स्वरुप ग्राहक ही कहा था, अर्थग्राहक कहा नहीं था । इसलिए "ग्रहणेक्षया" पद से (जो योगाचार समस्त ज्ञान बाह्यार्थ के निश्चयात्मक बनते है उसका निषेध करके) अर्थात् ज्ञान बाह्यार्थ का निश्चयात्मक नहीं
। अर्थात् समस्तज्ञान बाह्यार्थ के निश्चय से विकल है, ऐसा माननेवाले योगाचारो के मत का निराकरण होता है। इसलिए योगाचार मत के निराकरण के लिए इस्तेमाल किया गया "ग्रहणेक्षया" पद सार्थक
जिस प्रकार से अंत: संवेदन स्व-अंश के ग्रहण में अपने स्वरुप को जानने में व्यापार करता है । उसी प्रकार से वह बाह्य घटपटादिपदार्थो को भी जानता है । इतरथा (यदि अंत: संवेदन- ज्ञान बाह्यपदार्थो को बताता न हो और मात्र स्वरुप का प्रकाशक हो तो) बाह्यपदार्थो के अग्रहण में सर्वप्रमातृओ को लोगो को नीलादि पदार्थो का एकसमान नियतदेशतया प्रतिभास नहि होगा और सर्व जीवो को नियतदेशतया नीलादिपदार्थो का एकसमान प्रतिभास होता है और "घटादि पदार्थ है" इस अनुसार से मालूम होता है इसलिए ज्ञान बाह्य पदार्थो का भी प्रकाशक बनता है । इसलिए बाह्यार्थ घटादि भी विद्यमान है ही । (कहने का मतलब यह है कि.. ज्ञानवादियों के मत में अपने अपने ज्ञान का ही नील - पीतादि आकारो में प्रतिभास
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