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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५६, जैनदर्शन सङ्कीर्णतामध्यक्षस्य परिहरति । एतेन परपरिकल्पितानां G-19 कल्पनापोढत्वादीनां प्रत्यक्षलक्षणानां निरासः कृतो द्रष्टव्यः । ज्ञानवादिनोऽवादिषुः । अहो आर्हताः ! अर्थस्यात्मस्वरूपस्य यद्ग्राहकं तत्प्रत्यक्षमित्येव अत्र व्याख्यायताम्, अर्थशब्देन बाह्यो ऽप्यर्थः कुतो व्याख्यातो बाह्यार्थस्यासत्त्वादित्याशङ्कायां " अर्थस्य ग्राहकं" इत्यत्रापि " ग्रहणेक्षया " इति वक्ष्यमाणं पदं सम्बन्धनीयं, बहिरर्थनिराकरणपरान् योगाचारादीनधिकृत्यैव " ग्रहणेक्षया" इति वक्ष्यमाणपदस्य योजनात्, ततोऽयमर्थः - ग्रहणं ज्ञानात्पृथग् बाह्यार्थस्य यत्संवेदनं तस्येक्षयापेक्षयार्थस्य यद्ग्राहकं तत्प्रत्यक्षम् । न चार्थस्य ग्राहकमित्येतावतैव बाह्यार्थापेक्षया यद्ग्राहकं तत्प्रत्यक्षमित्येतत्सिद्धमिति वाच्यं यत आत्मस्वरूपस्यार्थस्य ग्राहकमित्येतावताप्यर्थस्य ग्राहकं भवत्येव, ततो ग्रहणेक्षयेत्यनेन ये योगाचारादयो बहिरर्थकलाकलनविकलं सकलमपि ज्ञानं प्रलपन्ति तान्निरस्यति । स्वांशग्रहणे ह्यन्तः संवेदनं यथा व्याप्रियते तथा बहिरर्थग्रहणेऽपि, इतरथा बहिरर्थग्रहणाभावे सर्वप्रमातृणामेकसदृशो नीलादिप्रतिभासो नियतदेशतया न स्यात् । अस्ति च स सर्वेषां नियतदेशतया, ततोऽर्थोऽस्तीत्यवसीयते । व्याख्या का भावानुवाद : "अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानम् इदृशं प्रत्यक्षम् " इस व्याख्या में "प्रत्यक्ष" पद लक्ष्यनिर्देशक है । तथा ‘“अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानम्" यह पद लक्षणनिर्देशक है । परोक्ष-इन्द्रियो के अविषय, उससे भिन्न अपरोक्ष अर्थात् इन्द्रियो के द्वारा जाने गये पदार्थ की तरह साक्षात् रुप से, अस्पष्ट या संदिग्धतया नहि, (परंतु स्पष्टतया) अर्थ का अर्थात् अपने आंतरिकस्वरुप का तथा घटपटादि बाह्यवस्तुओ का ग्राहक साक्षात् रुप से निश्चय करनेवाले ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहा जाता है । २२३/८४६ विशेषण अन्य का व्यवच्छेद कराता है। इसलिए ऐसे प्रकार का ही ज्ञान प्रत्यक्ष है, अन्य प्रकार का नहि... ( यह बात उस विशेषण से सिद्ध होती है ।) “अपरोक्षतया” पद से प्रत्यक्ष के लक्षण की परोक्ष के लक्षण के साथ की संकीर्णता दूर होती है। अर्थात् प्रत्यक्ष के लक्षण को परोक्ष के लक्षण से भिन्न सिद्ध करते है । प्रत्यक्ष प्रमाण का तादृश विशद लक्षण करने से बौद्ध आदि द्वारा परिकल्पित प्रत्यक्ष के कल्पनापोढ निर्विकल्पक आदि लक्षणो का व्यवच्छेद हो जाता है I Jain Education International (यहाँ “अहो... बाह्यार्थस्यासत्त्वादिति" तक शंकाग्रंथ है और "अर्थस्य ग्राहकं" इत्यादि पद समाधान ग्रंथ के है ।) ( G-19 ) - तु० पा० प्र० प० । For Personal & Private Use Only = www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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