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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५६, जैनदर्शन
स्व-पर्यायो से अनंतगुना है। दोनो ही स्व-परपर्यायें सभी द्रव्यो में पाये जाते है, सभी द्रव्यो का स्वपर्याय तथा परपर्याय रुप से परिणमन होता है ।
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हमारी यह बात अनार्षीय भी नही है । अर्थात् पहले ऋषियों द्वारा कही गई ही है। क्योंकि श्री आचारांग सूत्र में कहा है कि..." जो एक को जानता है वह सर्व को जानता है और जो सर्व को जानता है वह एक को जानता है ।" इस कथन का तात्पर्यार्थ इस अनुसार से है जो एक वस्तु को स्व-पर सभी पर्यायो के द्वारा जानता है, वह नियम से सर्ववस्तुओ को जानता है, क्योंकि सर्व के ज्ञान बिना विवक्षित एक वस्तु का स्व-पर-पर्याय के भेद की भिन्नता से सर्व प्रकार से ज्ञान नहीं हो सकता है। तथा जो सर्व को सर्वप्रकार से साक्षात् जानता है, वह स्व-पर पर्याय के भेद से भिन्न एक वस्तु को जानता है । अन्यत्र भी कहा है कि " जिसके द्वारा एक भाव सर्वथा देखा गया है, उसके द्वारा सर्वप्रकार से सर्वभाव देखे गये है । तथा जिसके द्वारा सर्वभाव सर्वथा देखे गये है, उसके द्वारा सर्वप्रकार से एक भाव देखा गया है ।"
इसलिए सकल वस्तु प्रमेय होने से अनंतधर्मात्मक सिद्ध होती है। अर्थात् इस विवेचन से सिद्ध होता है कि, सभी वस्तुयें अनंतधर्मात्मक है, क्योंकि प्रमेय है | ॥५५॥
अथ सूत्रकार एव प्रत्यक्षपरोक्षयोर्लक्षणं लक्षयति
अब सूत्रकार श्री स्वयं ही प्रत्यक्ष और परोक्ष का लक्षण कहते है ।
(मू. श्लो.) अपरोक्षतयार्थस्य - 18 ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरज्ज्ञेयं, परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥ ५६॥
श्लोकार्थ : पदार्थ को अपरोक्षतया - स्पष्टरुप से ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है। प्रत्यक्ष से भिन्न ज्ञान परोक्ष है। ज्ञान में आई हुई परोक्षता बाह्य पदार्थो को ग्रहण करनेकी अपेक्षा से ही है । (क्योंकि स्वरुपत: सर्वज्ञान प्रत्यक्ष ही होते है ।) अर्थात् जो ज्ञान अपरोक्षतया = साक्षात् मात्र आत्मा की प्रवृत्ति से विषय का ग्राहक बने, वह प्रत्यक्षज्ञान और इन्द्रियादि की सहायतापूर्वक होता ज्ञान परोक्ष है तथा ग्रहण करनेवाले साधन ज्ञान को "परोक्ष" शब्द के व्यवहारयोग्य बनाते है ।) ॥५६॥
व्याख्या- तत्र प्रत्यक्षमिति लक्ष्यनिर्देशः 1 अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमिति लक्षणनिर्देशः । परोक्षोऽक्षगोचरातीतः, ततोऽन्योऽपरोक्षस्तद्भावस्तत्ता तयाऽपरोक्षतयासाक्षात्कारितया न पुनरस्पष्टसन्दिग्धादितया, अर्थस्य - आन्तरस्यात्मस्वरूपस्य, बाह्यस्य च घटकटपटशकटलकुटादेर्वस्तुनो ग्राहकं व्यवसायात्मकतया साक्षात्परिच्छेदकं, ज्ञानम् ईदृशम् विशेषणस्य व्यवच्छेदकत्वादीदृशमेव प्रत्यक्षं नत्वन्यादृशम् । अपरोक्षतयेत्यनेन परोक्षलक्षण
( G - 18 ) - तु० पा० प्र० प० ।
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