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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५६, जैनदर्शन I होता है, वह ज्ञानरुप नीलादि बाहर दिखना नहीं चाहिए तथा सर्व जीवो को साधारणरुप से उसका प्रत्यक्ष नहि होना चाहिए । क्योंकि ज्ञान का आकार तो स्वसंवेद्य होता है, साधारण जनसंवेद्य नहीं । परंतु नीलादि पदार्थ निश्चित बाह्यप्रदेश में सभी को साधारणरूप से ही प्रतिभासित होता है । इसलिए बाह्यपदार्थो की सत्ता अवश्य माननी ही चाहिए । अथ चिद्रूपस्यैव तथा तथा प्रतिभासनान्न बहिरर्थग्रहणमिति चेत् ? तर्हि बहिरर्थवत् स्वज्ञानसन्तानादन्यानि सन्तानान्तराण्यपि विशीर्येरन् । अथ सन्तानान्तरसाधकमनुमानमस्ति - 20, तथाहि - विवक्षितदेवदत्तादेरन्यत्र यज्ञदत्तादौ व्यापारव्याहारौ बुद्धिपूर्वकौ व्यापारव्याहारत्वात्, सम्प्रतिपन्नव्यापारव्याहारवदिति । सन्तानान्तरसाधकमनुमानं स्वस्मिन् व्यापारव्याहारयोर्ज्ञानकार्यत्वेन प्रतिबन्धनिश्चयादिति चेत् ? न एतस्यानुमानस्यार्थस्येव स्वप्नदृष्टान्तेन भ्रान्ततापत्तेः, तथाहि सर्वे प्रत्यया निरालम्बनाः प्रत्ययत्वात्, स्वप्नप्रत्ययवदिति, G-21 तदभिप्रायेण यथा बहिरर्थग्रहणस्य निरालम्बनतया बाह्यार्थाभावस्तथा सन्तानान्तरसाधनस्यापि निरालम्बनतया सन्तानान्तराभावः स्यादिति । २२५/८४८ व्याख्या का भावानुवाद : पूर्वपक्ष (विज्ञानवादि ) : ज्ञान ही (अनादि वासनाओ के विचित्र विपाक से) उस उस प्रकार से (अर्थात् नीलादिरुपो में बाह्यदेश में) प्रतिभासित होता है । इसलिए बाह्यपदार्थ है ही नहि, इसलिए बाह्यपदार्थो को ग्रहण करनेवाला कोई ज्ञान ही नहीं है। उत्तरपक्ष (जैन) : तो फिर बाह्यघटादि पदार्थो की जैसे सत्ता नहीं है, वैसे स्व-ज्ञान संतान से अन्य संतानो की भी सत्ता नहीं मानी जा सकेगी। कहने का मतलब यह है कि, यदि घटादि बाह्य पदार्थो की वास्तविक सत्ता ही न हो, परंतु ज्ञान ही नीलादि आकारो में प्रतिभासित होता हो, तो स्व-ज्ञानसंतान से भिन्न अन्य संतान या जिसको संतानान्तर या आत्मान्तर भी कहा जता है, उसकी भी वास्तविक सत्ता मानी नहीं जा सकेगी और वह एक स्व-ज्ञानसंतान ही विचित्र वासना के कारण नीलादि बाह्यपदार्थरुप तथा संतानान्तररुप से प्रतिभास होती रहेगी । (आपने मानी हुई ) अन्यज्ञानसंतान निरर्थक बन जायेगी । पूर्वपक्ष (विज्ञानवादी) : हमारे पास ज्ञान की अनेक संतानान्तर को सिद्ध करनेवाला अनुमान विद्यमान है । वह यह रहा "विवक्षित देवदत्त आदि की ज्ञानसंतान से भिन्न यज्ञदत्त आदि ज्ञानसंतानो में होनेवाले वचनव्यवहार और प्रवृत्तियां बुद्धिपूर्वक है, क्योंकि वह वचनव्यवहार तथा प्रवृत्तियां है। जैसे कि स्वज्ञान संतान में होनेवाले वचनव्यवहार और प्रवृत्तियां बुद्धिपूर्वक होती है।" (कहने का मतलब यह है कि) यह संतानान्तरसाधक अनुमान से सिद्ध होता है कि... हमको हमारी ज्ञानसंतान में ही वचन और अन्यप्रवृत्तियों का ज्ञान के साथ कार्य-कारणभाव का निश्चय होता है अर्थात् मुज में ज्ञान है, इसलिए अच्छी (G-20-21) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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