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________________ २१८/८४१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन है, इस अनुसार से व्यपदेश किया जा सके। जैसे कि, दरिद्र को (गरीब को) धन होता नहीं है, इसलिए धन को दरिद्र के संबंधी के रुप में व्यपदेश करने के लिए संभव नहीं है। अर्थात् दरिद्र के पास धन न होने से "दरिद्र का धन" ऐसा व्यवहार होता नहीं है। (तथा जो वस्तु जिसमें देखने को मिलती नहीं है वह विरुद्ध है।) इसलिए वस्तु में पर पर्यायो का व्यपदेश करने से लोक व्यवहार का अतिक्रम हो जायेगा। समाधान : आपकी यह शंका महामूर्खता और पागलपन की सूचक है। क्योंकि यदि वे पर-पर्याय व्यपदेश संबंध के आश्रय से उस घट के है, इस अनुसार से व्यपदेश किया नहीं जायेगा, तो, सामान्यतः वे पर--पर्याय परवस्तुओ में भी प्राप्त किये नहीं जायेंगे - रह नहीं सकेंगे, क्योंकि परवस्तु में तो वे स्वपर्यायरुप से ही रहते है। सामान्यपर्याय बन के नहीं। (इसलिए जब घट में तथा अन्य परवस्तुओ में उसका संबंध न रहे, तो उसको पर्याय ही किस तरह से कहा जा सकेगा?) परंतु उसका पर्याय के रुप में अस्वीकार तो इष्ट नहीं है और ऐसा अनुभव का विषय भी नहीं है। इसलिए वे पर-पर्याय नास्तित्वसंबंध का आश्रय करके धन के है, इस अनुसार से व्यपदेश करना चाहिए। तथा धन भी नास्तित्वसंबंध का आश्रय करके दरिद्र का है, । इस प्रकार से व्यपदेश किया जा सकता है। इसलिए ही जगत में कहा जाता है कि.. "इस दरिद्र को धन विद्यमान नहीं है।" उपरांत "वह उसका संबंधी है इस अनुसार से व्यपदेश करने के लिए संभव नहीं है" इस अनुसार जो आपने कहा था, उसमें भी जान लेना कि अस्तित्वरुप से धन दरिद्र का संबंधी है, ऐसा व्यपदेश करना संभव नहीं है, परंतु नास्तित्वरुप से तो धन दरिद्र का संबंधी होने से नास्तित्वरुप से धन को दरिद्र के संबंधी के रुप में व्यपदेश का निषेध करना उचित नहीं है। इसलिए एक ही वस्तु में अस्तित्वरुप से स्वपर्याय का और नास्तित्वरुप से परपर्यायो का व्यपदेश करने में लेशमात्र लोकव्यवहार का अतिक्रम होता नहीं है। ननु नास्तित्वमभावोऽभावश्च तुच्छरूपस्तुच्छेन च सह कथं सम्बन्धः, तुच्छस्य सकलशक्तिविकलतया सम्बन्धशक्तेरप्यभावात् । अन्यञ्च, यदि परपर्यायाणां तत्र नास्तित्वं, तर्हि नास्तित्वेन सह सम्बन्धो भवतु, परपर्यायैस्तु सह कथं सम्बन्धः, न खलु घटः पटाभावेन सम्बद्धः पटेनापि सह सम्बन्धो भवितुमर्हति, तथाप्रतीतेरभावात्, तदेतदसमीचीनं, सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, तथाहि-नास्तित्वं नाम तेन तेन रूपेणाभवनमिष्यते तेन तेन रूपेणाभवनं च वस्तुनो धर्मः, ततो नैकान्तेन तत्तुच्छरुपमिति न तेन सह सम्बन्धाभावः । तेन तेन रुपेणाभवनं च तं तं पर्यायमपेक्ष्यैव भवति नान्यथा, तथाहि-यो यः पटादिगतः पर्यायः तेन तेन रूपेण मया न भवितव्यमिति सामर्थ्याद् घटस्तं तं पर्यायमपेक्ष्यते इति सुप्रतीतमेतत्, ततस्तेन तेन पर्यायेणाभवनस्य तं तं पर्यायमपेक्ष्य सम्भवात्तेऽपि परपर्यायास्तस्योपयोगिन इति तस्येति व्यपदिश्यन्ते । एवंरूपायां च विवक्षायां पटोऽपि घटस्य सम्बन्धी भवत्येव, पटमपेक्ष्य घटे पटरूपेणाभवनस्य भावात्, तथा च लौकिका अपि घटपटादीन् परस्परमितरेतराभावमधिकृत्य सम्बद्धान् व्यवहरन्तीत्यविगीतमेतत्, इतश्च ते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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