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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन २१७/८४० व्याख्या का भावानुवाद : धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल में क्रमशः असंख्यातप्रदेशत्व, असंख्यातप्रदेशत्व, अनंतप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व धर्म है तथा सर्वजीव और पुद्गलो का गत्युपग्राहकत्व, स्थित्युपग्राहकत्व, अवगाहोपग्राहकत्व, वर्तनापरिणमन धर्म है । तथा अवच्छेदकावच्छेद्यकत्व (अर्थात् भिन्न-भिन्न पदार्थो की अपेक्षा से घटाकाश-मठाकाश, घटकाल - प्रातः काल इत्यादि व्यवहारो का पात्र बनाना।) अवस्थितत्व ( अवस्थित रहना), अनादि - अनंतत्व, अरुपित्व, अगुरुलघुता, एकस्कंधत्व, मत्यादिज्ञानविषयत्व, सत्त्व (सता), द्रव्यत्व इत्यादि अनेक धर्म होते है । पुद्गल द्रव्य में घट के दृष्टांत में कहे अनुसार से अनंता स्व-पर धर्म होते है । शब्दो में उदात्तत्व, अनुदात्तत्व, स्वरितत्व, विवृतत्व, संवृतत्व, घोषता, अघोषता, अल्पप्राणता, महाप्राणता, अभिलाप्यत्व, अनभिलाप्यत्व, अर्थवाचकता, अर्थावाचकता, भिन्न-भिन्न क्षेत्रो में और भिन्न-भिन्न समयो में भिन्न-भिन्न भाषाओ के अनुसार से अनंतपदार्थो का कथन करने के शक्ति रखना इत्यादि अनेकधर्म है । आत्मादि सर्वद्रव्यो में नित्यत्व, अनित्यत्व, सामान्य, विशेष, सत्त्व, असत्त्व, अवक्तव्यत्व, वक्तव्यत्व तथा अनंत पदार्थो से व्यावृत्त होने का स्वभाव अर्थात् अनंता व्यावृत्तिधर्मो का सद्भाव जानना । शंका : (वस्तुके) जो स्वपर्याय है, वे सभी उसके संबंधी चाहे हो, परंतु जो पर - पर्याय है, कि जो विभिन्न वस्तुओ में रहे हुए होने से किस तरह से उसका संबंधी के रुप में व्यपदेश किया जा सके ? | अर्थात् घट के अपने स्वरुप आदि की अपेक्षा से " अस्तित्व" तो उसका धर्म हो सकता है। परंतु पट आदि पर पदार्थो का नास्तित्व तो पट आदि परपदार्थो को अधीन है। इसलिए उसको घट का धर्म किस तरह से कहा जा सकता है ? समाधान : वस्तु में पर्यायो का संबंध दो प्रकार से है। एक अस्तित्व रुप से और दूसरा नास्तित्व रुप से । उसमें वस्तु का स्व--पर्यायो के साथ अस्तित्व संबंध है। जैसे कि, घट का रुपादि पर्यायो के साथ का संबंध तथा घट का पर पर्यायो के साथ नास्तित्व संबंध है। क्योंकि विवक्षित वस्तु में उस परपर्यायो का संभव नहीं है। (इसलिए नास्तित्व रुप से संबंध है ।) जैसे कि घटाकार अवस्था में मृद्रुपता पर्याय के साथ संबंध नहीं है। क्योंकि वे पर्याय (वर्तमान में) उसके नहीं है। इसलिए वे पर्याय नास्तित्वसंबंध से वस्तु के साथ जुडे हुए है और इसलिए उस पर्यायो का पर-पर्यायो के रुप में व्यपदेश किया जाता है। (सारांश में, जो कारण से वे पर-पर्याय उस पदार्थ में रहते नहीं है, असत् है, उसी कारण से वे पर-पर्याय कहे जाते है । यदि वे पर्याय वस्तु में अस्तित्व रखते होते तो वस्तु के स्व-पर्याय ही कहे जाते । तथा पर की अपेक्षा से नास्तित्व नाम का धर्म तो घट आदि वस्तुओ में ही देखने को मिलेगा और यदि घट पटरुप से असत् न हो तो वह पटरुप ही बन जायेगा, कि जो आपको भी इष्ट नहीं है। इसलिए पर-पर्यायो से वस्तु का नास्तित्वरुप संबंध मानना ही चाहिए ।) शंका : जो पर्याय जिस वस्तु में विद्यमान ही नहीं है, तो किस तरह से वे पर्याय उस वस्तु के पर्याय For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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