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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन २१९/८४२ पर्यायास्तस्येति व्यपदिश्यन्ते, स्वपर्यायविशेषणत्वेन तेषामुपयोगात् । इह ये यस्य स्वपर्यायविशेषकत्वेनोपयुज्यन्ते ते तस्य पर्यायाः, यथा घटस्य रूपादयः पर्यायाः परस्परविशेषकाः । उपयुज्यन्ते च घटस्य पर्यायाणां विशेषकतया पटादिपर्यायाः, तानन्तरेण तेषां स्वपर्यायव्यपदेशाभावात्, तथाहि - यदि ते परपर्याया न भवेयुः तर्हि घटस्य स्वपर्यायाः स्वपर्याया इत्येवं न व्यपदिश्येरन्, परापेक्षया स्वव्यपदेशस्य सद्भावात्, ततः स्वपर्यायव्यपदेशकारणतया तेऽपि परपर्यायास्तस्योपयोगिन इति तस्येति, व्यपदिश्यन्ते । व्याख्या का भावानुवाद : शंका : नास्तित्व अभावस्वरुप है। अभाव तुच्छरुप है और तुच्छ के साथ संबंध किस तरह से होगा। क्योंकि तुच्छवस्तु सकल शक्तियों से विकल होने के कारण उसमें संबंधशक्ति का भी अभाव ही है। दूसरा, यदि विवक्षित वस्तु में पर-पर्यायो का नास्तित्व है, तो विवक्षित वस्तु का नास्तित्व के साथ संबंध चाहे हो, परंतु पर-पर्यायो के साथ संबंध किस तरह से होगा? पटाभाव के साथ संबद्ध-घट, पट के साथ संबंध करने के लिए योग्य बन सकता नहीं है। कहने का मतलब यह है, कि.. यदि घडे में पर-पर्यायो का नास्तित्व है, तो नास्तित्व नाम के धर्म से घट का संबंध माना जा सकता है, परंतु पर-पर्यायो के साथ संबंध नहीं माना जा सकता । यदि पटका अभाव घट में रहता है, तो पट के नास्तित्व से घट का संबंध है, परंतु उससे पट से भी घट का संबंध किस तरह से कहा जा सकेगा और ऐसे प्रकार की प्रतीति होती कहीं भी देखने को नहीं मिलती है। अर्थात् जो पदार्थ का अभाव जिसमें देखने को मिले, वह पदार्थ भी उसमें देखने को मिले वैसी प्रतीति होती नहीं है। इसलिए विवक्षित वस्तु में पर-पर्यायो का संबंध हो सकता नहीं है। समाधान : आपकी शंका बिलकुल असमीचीन - मिथ्या है। क्योंकि सम्यग् वस्तु तत्त्व का आपको ज्ञान ही नहीं है। (हमारी बात उचित है और आपकी शंका मिथ्या है, वह) इस अनुसार से है-नास्तित्व यानी उस उस रुप में परिणमन न होना और उस उस अपरिणमन यह वस्तु का धर्म है। इसलिए नास्तित्व रुप अभाव एकांत से तुच्छरुप नहीं है। इसलिए उसके साथ संबंध हो, उसमें कोई दोष भी नहीं है और इसलिए तादृश वास्तविक धर्मरुप नास्तित्व का वस्तु के साथ का संबंध भी संगत होता है। वैसे ही, वस्तु का उस उस रुप से होता परिणमन, वस्तु के उस उस पर्याय के आश्रय से ही होता है, उस उस पर्याय के निरपेक्ष रुप से नहीं । वह इस तरह से है - "जो जो पटादि गत पर्याय है उस वह, रुप में मेरा परिणमन न होना" ऐसे प्रकार के सामर्थ्य से घट उस उस पर्यायो की अपेक्षा करता है ऐसा सुप्रतीत ही है। अर्थात् उस उस पटादिगत पर्यायो के आश्रय में ही कहे जाते है। इसलिए स्व की विवक्षा में पर-पर्यायो की अपेक्षा रहती ही होती है। इसलिए उस उस पर-पर्यायो के द्वारा अपरिणमन उस पर-पर्याय के आश्रय में ही संभवित है। इसलिए वे पर-पर्याय भी विवक्षितवस्तु को उपयोगी है। इसलिए ही उसका घट के पर्यायो के रुप में व्यपदेश किया गया है। तथा ऐसे प्रकार की निषेध की विवक्षा में पट भी घट का संबंधी होता ही है। क्योंकि पट के आश्रय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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